Sunday 19 April 2009

कबीर के राम

कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी खुदा भी नहीं हैं। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एवं जीवों से भिन्न एवं परम समर्थ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समर्थ भले हों, लेकिन समस्त जीवों और जगत से भिन्न तो कदापि नहीं हैं। बल्कि इसके विपरीत वे तो सबमें व्याप्त रहने वाले रमता राम हैं। वह कहते हैं:व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी। रावण-राव कवनसूं कवन वेद को रोगी।

कबीर राम की किसी खास रूपाकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि रूपाकृति की कल्पना करते ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते, जो कबीर को किसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक भिन्न और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे। इसके कुछ विशेष कारण थे, जिनकी चर्चा हम इस लेख में आगे करेंगे। किन्तु इसके बावजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का संबंध जरूर स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक और महिमाशाली सत्ता को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज प्रेमपरक मानवीय संबंधों के धरातल पर प्रतिष्ठित है।

कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। हालाँकि भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि ‘नाम रूप से बढ़कर है’, लेकिन कबीर ने इस सामान्य सिद्धांत का क्रांतिधर्मी उपयोग किया। कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में शताब्दियों से रचे-बसे संश्लिष्ट भावों को उदात्त एवं व्यापक स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बाँधे जाने से रोकने की कोशिश की।

कबीर के राम निर्गुण-सगुण के भेद से परे हैं। दरअसल उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘निर्गुण’ शब्द को लेकर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं। कबीर का आशय इस शब्द से सिर्फ इतना है कि ईश्वर को किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वत्र हैं, वही कबीर के निर्गुण राम हैं। इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम दिया है। अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दास्य भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुत्र। निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणता है। यह दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानवीय संबंधपरक प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है।

कबीर कहते भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कहिये। गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!”

Saturday 18 April 2009

If parents love their children ...Jiddu Krishnamurti quote


If parents love their children, they will not be nationalistic, they will not identify themselves with any country; for the worship of the State brings on war, which kills or maims their sons.If parents love their children, they will discover what is right relationship to property; for the possessive instinct has given property an enormous and false significance which is destroying the world. If parents love their children, they will not belong to any organized religion; for dogma and belief divide people into conflicting groups, creating antagonism between man and man. If parents love their children, they will do away with envy and strife, and will set about altering fundamentally the structure of present-day society.

As long as we want our children to be powerful, to have bigger and better positions, to become more and more successful, there is no love in our hearts; for the worship of success encourages conflict and misery। To love one’s children is to be in complete communion with them; it is to see that they have the kind of education that will help them to be sensitive, intelligent and integrated.

Education and the Significance of Life, J. Krishnamurti, Chapter 6

Thursday 16 April 2009

मजहब, जाति और चुनाव

आप लोगों ने मजहब का नाम तो जरूर सुना होगा, जी ये वाही मजहब है जिसकी आड़ लेकर सत्ताधारी जनता को आपस मे लड़ाते रहते है।दह्शतगर्द मासूम लोंगों पर गोलियाँ चलाते रहते हैं. क्योंकि इनके गुरुघण्टाल गुरुओं ने मजहब के नाम पर इनके दिमाग मे दूसरे धर्म के प्रति नफरत ही भरा है और इनकी बेवकूफियों को भुनाकर अपना उल्लू सीधा किया है,जिसे ये धर्मांध समझना नही चाहते. हम सब देश मे सुधार की बात तो करते हैं पर चाहते हैं की इसकी शुरुआत कोई और करे (मेरे भैया की जुबानी मैने सुना था की-"हर इंसान ये चाहता है की महात्मा गांधी फिर से पैदा हो,पर पड़ोसी के घर में")
आज जब आतंकवादी हमलों मे किसी हिन्दू संगठन का नाम आता है तो हिन्दू धर्म के ठेकेदार जमाने भर के हिन्दू दलों और साधु-सन्यासियों की फौज लेकर सड़क पर उत्तर आते है. इसी तरह जब किसी मुस्लिम संगठन का नाम आ जाए तो उनके जमात वाले अपने आकाओं की अगुआई मे उस आतंकी की परवी करने निकल पड़ते है.क्यो ये लोग नहीं सोचते की मानवता और इन्शानियत ही आदमी का असल मजहब है .मैं किसी भी धर्म के पक्षा या विपक्ष मे नहीं हूँ, बल्कि मैं तो चाहती हूँ की सब धर्म के लोग बिना किसी भेदभाव के मिल-जुलकर रहे.जब कोई बच्चा संसार मे जन्म लेता है तो उसे नहीं पता होता की वो हिन्दू है,मुसलमान है, सिख है, ईसाई है, जैन है, बौद्ध है या क्या है ??? ईश्वर ने तो केवल एक स्त्री और एक पुरुष की ही रचना की थी , बाकी चीजें तो इंसान ने खुद ही बनाई है सिवाय प्रकृति के ,आखिर कहीं ना कहीं तो हम एक ही माता-पिता की संतानें हैं. फिर अपने ही भाई-बहनों का खून बहाकर किसी को क्या मिल सकता है.कोइ भी धर्म गलत रास्ता नहीं बताता, ये तो मानने वाले ही हैं जो धर्म को बदनाम कर देते हैं.


मजहब नहीं सिखाता,

आपस मे बैर रखना.......

ये पंक्ति हर मजहब के इंसान को याद रखनी चाहिए.

Wednesday 15 April 2009

Tuesday 14 April 2009

हर सांस में हर बोल में

हर सांस में हर बोल में साईं नाम की झंकार है ।
हर नर मुझे भगवान है हर द्वार मंदिर द्वार है ॥

ये तन रतन जैसा नहीं मन पाप का भण्डार है ।
पंछी बसेरे सा लगे मुझको सकल संसार है ॥

हर डाल में हर पात में जिस नाम की झंकार है ।
उस साईंनाथ के द्वारे तू जा होगा वहीं निस्तार है ॥

अपने पराये बन्धुओं का झूठ का व्यवहार है ।
मनके यहां बिखरे हुये साईं ने पिरोया तार है ॥

Discovery of Real India, Swami Vivekananda


During his travels all over India, Swami Vivekananda was deeply moved to see the appalling poverty and backwardness of the masses। He was the first religious leader in India to understand and openly declare that the real cause of India’s downfall was the neglect of the masses. The immediate need was to provide food and other bare necessities of life to the hungry millions. For this they should be taught improved methods of agriculture, village industries, etc. it was in this context that Vivekananda grasped the crux of the problem of poverty in India (which had escaped the attention of social reformers of his days): owing to centuries of oppression, the downtrodden masses had lost faith in their capacity to improve their lot। It was first of all necessary to infuse into their minds faith in themselves। For this they needed a life-giving, inspiring message. Swamiji found this message in the principle of the Atman, the doctrine of the potential divinity of the soul, taught in Vedanta, the ancient system of religious philosophy of India. He saw that, in spite of poverty, the masses clung to religion, but they had never been taught the life-giving, ennobling principles of Vedanta and how to apply them in practical life.

Thus the masses needed two kinds of knowledge: secular knowledge to improve their economic condition, and spiritual knowledge to infuse in them faith in themselves and strengthen their moral sense. The next question was, how to spread these two kinds of knowledge among the masses? Through education – this was the answer that Swamiji found.

Monday 13 April 2009

जैसा खाए अन्न वैसा बने मन : डॉ. देवेंद्र जोशी

तपस्या का मूल आधार है मित आहार। मित आहार का मतलब है अत्यंत सीमित मात्रा में जितना आवश्यक हो उतना ही भोजन ग्रहण करना। भोजन में स्वाद की बजाए सात्विकता, शुचिता और पवित्रता का होना साधक की सफलता का अनिवार्य तत्व है। भारतीय शास्त्रों में आहार शुद्धि पर अत्यधिक बल दिया गया है। शास्त्र कहते हैं- 'जैसा खाए अन्ना वैसा बने मन।' अर्थात मनुष्य का मन और आचरण उसके आहार के अनुसार ही चलता है। जीवन में सफलता, यश, कीर्ति, वैभव, महानता, उच्चता और भगवत्प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति का आहार शुद्ध, सात्विक, संतुलितऔर चित्त पर अनुकूल प्रभाव डालने वाला हो।

भोजन केवल जिह्वा की स्वाद संतुष्टि का साधन मात्र नहीं है। यह महज उदरपूर्ति का उपक्रम भी नहीं है। यह साधक की साधना का एक अभिन्ना अंग है। सच कहा जाए तो साधक की साधना का प्रथम सोपान ही आहार शुद्धि है। शास्त्रों में जिसे मित आहार कहा गया है, उसका मतलब केवलआहार की अल्पता ही नहीं वरन उसकी पवित्रता और शुचिता है। साधक का मन साधना में तभी लग सकता है, जबकि उसका आहार सात्विक एवं चित्त को एकाग्रता प्रदान करने वाला हो। घंटों एकांत में बैठकर तप करने वाले या ईश्वरोपासना में दीर्घकाल तक रत रहने वाला व्यक्तिअगर यह सोचे कि इतनी लंबी पूजा-तपस्या करने के बाद अब मैं कुछ भी भोजन करूँ और कितनी भी मात्रा में ग्रहण करूँ इससे तपस्या या पूजा पर क्या असर पड़ने वाला है, लेकिन साधक का ऐसा सोचना गलत है। आहार की शुद्धि के बिना साधक की साधना की पूर्णता संभव नहीं है।

मनुष्य का कर्म, आचरण और जीवन उसके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आहार पर निर्भर करता है। न केवल आहार शुद्ध हो अपितु उसे बनाने वाले हाथ, परोसने वाले और उसमें उपयोग लाए जाने वाले पदार्थ तथा आहार जहाँ तैयार किया जा रहा है वहाँ का वातावरण भी शुद्ध होना चाहिए। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व उसे ईश्वर को समर्पित किया जाना चाहिए। सच्चे अर्थों में जिसे आप भोजन मानकर ग्रहण करते हैं, वह प्रभु प्रसाद है। उसे उसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ अन्ना को देवता माना गया है। अतः उसे जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना और झूठा छोड़ना दोनों ही गलत है। मनुष्य को मित आहारी बनकर भोजन को प्रभु प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए तभी उसमें मनसा, वाचा, कर्मणा, एकरूपता और आचरण में पवित्रता, और उच्चता का गुण विकसित हो सकता है।

कबीर ने कहा है : भाग -3


कबीर ने कहा है कि.......

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिल्या कोए।

जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा ना कोए॥

Translation:

I searched for the crooked, met not a single oneWhen searched myself, "I" found the crooked one.

Understanding:-

This doha deals with our perception behavior and tendencies। It has been invariably noticed that we tend to find fault with someone else for our situations and circumstances. Our "I", the ego, always tries to put blame on others. Non-awareness of our own self is the cause of this attitude. Resultantly, we find ourselves being busy in criticizing and condemning others and conveniently term them as crooked or evil.


So Kabir says that instead of finding fault and maligning others, dive deep into your own-self. Amazingly, an honest introspection will reveal that all fault lies with "me" and "my" own perceptions and attitudes. If there is any evil or crookedness, it is in "me". Correcting this and opting for a loving and compassionate attitude will change one's perceptions and the world will appear wonderful all over again.

Sunday 12 April 2009

साईं ने कहा है: भाग - 25

साईं ने कहा है, कि ........

"ईश्वर महान है, परमेश्वर ही स्वामी है।"

Saturday 11 April 2009

साईं ने कहा है : भाग - 24

साईं ने कहा है, कि .......

"लाभ और हानि, जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है,

लेकिन अज्ञानता के कारण लोग ईश्वर को भूल जाते है।"

Friday 10 April 2009

साईं ने कहा है : भाग - 23

साईं ने कहा है, कि .........

"प्रेम और भक्ति के साथ मेरी सेवा करो, तुम्हे परम आनंद की अनुभूति होगी।"

Thursday 9 April 2009

साईं ने कहा है: भाग - 22

साईं ने कहा है, कि.......

"जिसको धन, शक्ति, मान, पद तथा अन्य भौतिक पदार्थो
की अभिलाषा हो, उसे ब्रम्ह ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है।"

Wednesday 8 April 2009

स्वामी रामकृष्ण परमहंस : परिचय

मानवता के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन दीन-दुखियों के उपकार में समर्पित रहा। सेवा का अखंड व्रत उनके जीवन का मूलमंत्र था। एक बार उनके परम प्रिय शिष्य विवेकानंद कुछ समय के लिए हिमालय में तप करने के लिए जब उनसे आज्ञा लेने गए तो उन्होंने कहा था, वत्स, हमारे आसपास के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। लोग रोते चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की गुफा में समाधि के आनंद में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?

बंगाल प्रांत के ग्राम कामारपुकुर में 17 फरवरी 1836 को जन्मे रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। बताया जाता है कि एक दिन माता ने स्नेह पूर्वक एक सोने का हार पुत्र के गले में पहना दिया किंतु शिशु ने तत्काल उसके टुकड़े टुकड़े कर फेंक दिया। सात वर्ष की आयु में पिताजी नहीं रहे। इसी बीच गदाधर के भौहों के मध्य एक फोड़ा हुआ। चिकित्सक ने कहा कि बेहोश करके फोड़े को चीरना होगा। बालक ने कहा कि बेहोश करने की जरूरत नहीं, ऐसे ही काटिए, मैं हिलूंगा नहीं।

जब गदाधर को ओरिएंटल सेमिनरी में भर्ती कराया गया तो किसी सहपाठी को फटा कुर्ता पहने देखकर अपना नया कुर्ता उसे दे दिया। कई बार ऐसा होने पर एक दिन माता ने गदाधर से कहा, प्रतिदिन नया कुर्ता कहां से लाऊंगी? बालक ने कहा, ठीक है, मुझे एक चादर दे दो, कुर्ते की आवश्यकता नहीं है। मित्रों की दु‌र्व्यवस्था देखकर संवेदनशील गदाधर के हृदय में करुणा उभर आती थी। उन्हें कोलकाता आने वाले साधुओं के मुख से हरिकथा सुनने का बड़ा लगाव था। विवेकानंद ने एक बार उनसे पूछा था , क्या आपने ईश्वर को देखा है। युगद्रष्टा रामकृष्ण ने उत्तर दिया,हाँ देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। माँ काली के सच्चे आराधक रामकृष्ण परमहंस भारतीय मनीषा थे। स्वामी विवेकानंद ने जब एक बार रोगमुक्ति के लिए काली से उन्हें प्रार्थना करने को कहा तो वे बोले, इस तन पर मां का अधिकार है। मैं क्या कहूं, जो वह करेंगी अच्छा ही करेंगी। 15 अगस्त 1886 को रामकृष्ण तीन बार काली का नाम उच्चारण कर सदा के लिए समाधि में लीन हो गए।

जिस प्रकार मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार मलिन अंत:करण में ईश्वर के प्रकाश का पतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। - रामकृष्ण परमहंस

Tuesday 7 April 2009

साईं ने कहा है: भाग - 21

साईं ने कहा है, कि.......

"लालची व्यक्ति को वैराग्य और मोक्ष की प्राप्ति कभी नही हो सकती ।"

Monday 6 April 2009

मोको कहां ढूढे रे बन्दे - कबीर (Kabir)

मोको कहां ढूढे रे बन्दे,
मैं तो तेरे पास में ।

ना तीर्थ मे ना मूर्त में,
ना एकान्त निवास में,
ना मंदिर में ना मस्जिद में,
ना काबे कैलास में ।

मैं तो तेरे पास में बन्दे,
मैं तो तेरे पास में ।

ना मैं जप में ना मैं तप में,
ना मैं बरत उपास में,
ना मैं किर्या कर्म में रहता,
नहिं जोग सन्यास में,
नहिं प्राण में नहिं पिंड में,
ना ब्रह्याण्ड आकाश में,
ना मैं प्रकति प्रवार गुफा में,
नहिं स्वांसों की स्वांस में।

खोजि होए तुरत मिल जाउं,
इक पल की तालाश में,
कहत कबीर सुनो भई साधो,
मैं तो हूँ विश्वास में।

प्रेम किस तरह का होना चाहिए....

प्रेम उसी से करना चाहिए, जो अपने समान ही हृदय में प्रेम धारण करने वाले हों। यह प्रेम इस तरह का होना चाहिए कि समय-असमय किसी से भूल हो जाये तो उसे प्रेमी क्षमा कर भूल जायें।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या - प्रेम किया नहीं हो जाता है यह फिल्मों द्वारा संदेश इस देश में प्रचारित किया जाता है। सच तो यह है कि ऐसा प्रेम केवल देह में स्थित काम भावना की वजह से किया जाता है। प्रेम हमेशा उस व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए जो वैचारिक सांस्कारिक स्तर पर अपने समान हो। जिनका हृदय भगवान भक्ति में रहता है उनको सांसरिक विषयों की चर्चा करने वाले लोग विष के समान प्रतीत होते हैं। यहां दिन में अनेक लोग मिलते है पर सभी प्रेमी नहीं हो जाते। कुछ लोग छल कपट के भाव से मिलते हैं तो कुछ लोग स्वार्थ के भाव से अपना संपर्क बढ़ाते हैं। भवावेश में आकर किसी को अपना सहृदय मानना ठीक नहीं है।

जो भक्ति भाव में रहकर निष्काम से जीवन व्यतीत करता है उनसे संपर्क रखने से अपने आपको सुख की अनुभूति मिलती है।

परिणाम (Result)

प्रत्येक कार्य का परिणाम अच्छाई और बुराई का मिश्रण है।
कोई भी अच्छा काम नहीं जिसमें थोडी बहुत बुराई न हो।
अग्नि के साथ धुएँ की तरह बुराई भी प्रत्येक कार्य में रहती है।
लेकिन हमें अपनेआप को अधिक से अधिक ऐसे कामों में लगाना चाहिये,
जिनका अच्छा परिणाम अधिक हो और बुरा काम से कम।

'मैं' का बंधन!

'मैं' को भूल जाना और 'मैं' से ऊपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है। उसके अतिक्रमण से ही मनुष्य मनुष्यता को पार कर द्वियता से संबंधित हो जाता है। जो 'मैं' से घिरे रहते हैं, वे भगवान को नहीं जान पाते। उस घेरे के अतिरिक्त मनुष्यता और भगवत्ता के बीच और कोई बाधा नहीं है।

बढ़ई की एक कथा: वह बढ़ई अलौकिक रूप से कुशल था। उसके द्वारा निर्मित वस्तुएं इतनी सुंदर होती थीं कि लोग कहते थे कि जैसे उन्हें किसी मनुष्य ने नहीं, वरन देवताओं ने बनाया हो। किसी राज ने उस बढ़ई से पूछा, ''तुम्हारी कला में यह क्या माया है?'' वह बढ़ई बोला, ''कोई माया-वाया नहीं है, महाराज! बहुत छोटी सी बात है। वह यही है कि जो भी मैं बनाता हूं, उसे बनाते समय अपने 'मैं' को मिटा देता हूं। सबसे पहले मैं अपनी प्राण-शक्ति के अपव्यय को रोकता हूं और चित्त को पूर्णत: शांत बनाता हूं। तीन दिन इस स्थिति में रहने पर, उस वस्तु से होने वाले मुनाफे, कमाई आदि की बात मुझे भूल जाती है। फिर, पांच दिनों बाद उससे मिलने वाले यश का भी ख्याल नहीं रहता। सात दिन और, और मुझे अपनी काया का विस्मरण हो जाता है - सभी बाह्य-अंतर विघ्न और विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। फिर, जो मैं बनाता हूं, उससे परे और कुछ भी नहीं रहता। 'मैं' भी नहीं रहता हूं। और, इसलिए वे कृतियां दिव्य प्रतीत होने लगती हैं।

''जीवन में दिव्यता को उतारने का रहस्य सूत्र यही है। मैं को विसर्जित कर दो - और चित्त को किसी सृजन में तल्लीन। अपनी सृष्टिं में ऐसे मिट जाओ और एक हो जाओ जैसे कि परमात्मा उसकी सृष्टिं में हो गया है।''

"मैं क्या करूं?'' ''क्या करते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कैसे करते हो! स्वयं को खोकर कुछ करो, तो उससे ही स्वयं को पाने का मार्ग मिल जाता है।''

गुरू और ईश्वर के सम्बंध में कबीर दास जी के दोहे - 4

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥
भावार्थ - यह शरीर तो बिष की लता है, बिषफल ही फलेंगे इसमें । और, गुरु तो अमृत की खान है। सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी यह सौदा सस्ता ही है ।

साईं ने कहा है : भाग-20

साईं ने कहा है, कि......

अपने गुरु के प्रति श्रधा और अटूट विश्वास रखो,

सदा याद रखो की वे ही ब्रम्हांड का नियंत्रण करता व संचालक है,

Sunday 5 April 2009

साईं ने कहा है : भाग - 19

साईं ने कहा है, कि.....
"मैं हर जीव जंतु में हूँ, जो इन प्राणियों में मेरा दर्शन करता है वो मुझे अति प्रिय है।"

Friday 3 April 2009

गुरू और ईश्वर के सम्बंध में कबीर दास जी के दोहे - 3

'कबीर' सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीष ॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला । सन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही माँगते फिरते हैं वे ।

Thursday 2 April 2009

साईं ने कहा है : भाग - 18

साईं ने कहा है.... कि

प्रस्संचित से अपने सांसारिक कार्यकलाप करते रहो लेकिन ईश्वर को कभी मत भूलो , सदा प्रभु का समरण करो।

गुरू और ईश्वर के सम्बंध में कबीर दास जी के दोहे - 2

सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर ।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर ॥
भावार्थ - सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर निकलने का नहीं अब ।

Wednesday 1 April 2009

गुरू और ईश्वर के सम्बंध में कबीर दास जी के दोहे - 1

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥
भावार्थ - सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है । मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ ?क्या लेकर सन्तोष करूँ उनका ? मन की अभिलाषा मन में ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ ? वैसी वस्तु कहाँ से लाऊँ ?

चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-

उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...