Friday, 19 February 2021
Wednesday, 17 February 2021
मैं और मेरे साईं :: अध्याय - १ "साईं नाम से साक्षात्कार" :: अंशुमान दुबे @KashiSai
वाराणसी। अंशुमान दुबे की आयु लगभग ८ या ९ वर्ष रही होगी, जब पहली बार साईं नाम कानों में पड़ा। साईं नाम का वह उच्चारण पूज्य पितामह श्री शारदा प्रसाद दुबे जी के मुखारविंद से निकला था। जब उन्होंने कहा कि शिर्डी वाले साईं बाबा संत हैं और वे भारत की संत परंपरा की अग्रिम कड़ी हैं, जैसे कबीर, रैदास, ज्ञानेश्वर, कीनाराम, अवधूत भगवान राम, आदि।
उन्होंने बताया संतों की न जाति होती है, न मज़हब। वे तो मानवता के कल्याण हेतु आते हैं और जब तक रहते हैं मानवता का कल्याण करते रहते हैं तथा संतों के शरीर त्याग करने के बाद भी संतों का ज्ञान, विचार, उपदेश, आदि मानवता का हित सदैव करते रहते हैं। श्रद्धेय पितामह की इन बातों ने दिमाग के किसी कोने में अपनी जगह बना ली।
समय बीता और १९८४ के मई माह में दादा जी पंडित शारदा प्रसाद दुबे जी के शरीर ने हम सबका साथ छोड़ दिया, परिवार ग़म में डूबा था और ९ वर्षीय अंशुमान अपने दादा की याद में दादी धनवती दुबे का सहारा बनकर, दादी के लाड प्यार में खो गया। साल दर साल बीते और अंशुमान ९वीं कक्षा का छात्र हो गया और १९९० के दशक में साइकिल बहुत बड़ी चीज़ होती थी और अब अंशुमान के मित्रों के पास साइकिल आ चुकी थी। बाल मण्डली प्रसन्न थी, अंशुमान भी अपने मित्रों की साइकिल आने से बहुत खुश था क्योंकि योजना के अनुसार मित्रगण अंशुमान को साइकिल सीखाने वाले थे। अंशुमान ने अपने मित्र मीसम रज़ा की साइकिल से एनी बेसेंट की बगिया सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल, कमच्छा के मैदान में साइकिल सीख ली।
साइकिल सीखने के बाद घूमने का कार्यक्रम मित्रों की बीच बना और तय हुआ कि सब साथ में संकटमोचन मंदिर में दर्शन करने जायेंगे। स्कूल लंच के बाद छोड़कर मित्र संजीव कुमार सिंह की साइकिल पर सवार होकर हम चार छः मित्रों का समूह संकटमोचन मंदिर के पीछे वाले रास्ते पर पहुंचा। मित्रगण अंशुमान, संजीव, राकेश, राजकिशोर, मनीष सबने एख साथ बाबा संकटमोचन के दर्शन करने को मंदिर परिसर में पीछे के रास्ते से प्रवेश किया। दर्शन करके मंदिर के बाहर अंशुमान सबसे पहले बाहर आ गया और मित्रों की प्रतीक्षा में मंदिर के इधर उधर टहलने लगा। तभी अंशुमान की नज़र संकटमोचन मंदिर की दीवार से सटे हुए छोटे से मंदिर पर पड़ी। अंशुमान कौतूहल वश मंदिर के समीप पहुंचा, तो देखता है कि वह छोटासा मंदिर शिर्डी साईं बाबा का है। बाबा की प्रतिमा और मंदिर पर लगे शिलापट्ट पर साईं बाबा का नाम पढ़कर अंशुमान ने प्रणाम किया और वहां रखी चरण पादुका को भी नमन किया। तभी मित्रों ने आवाज़ दी और साईं बाबा की प्रतिमूर्ति का प्रथम दर्शन प्राप्त कर अंशुमान अपने मित्रों के साथ स्कूल के लिए वापसी को चल पड़ा।
इस प्रकार अंशुमान के जीवन में साईं नाम की यात्रा का श्रीगणेश हुआ। समय बीता और अंशुमान ने मंदिरों, गुरुद्वारा, चर्चों, दरगाहों, आदि में मित्रों के साथ तो कभी अकेले आना जाना शुरू किया। वहां उपस्थित पुजारियों, पादरियों, ग्रंथियों, आदि के द्वारा परमात्मा के संदर्भ में कही बातों को सुना और समझने का प्रयास किया। इस घुमक्कड़ी पन की आदत अंशुमान को बाबा कीनाराम जी के रवीन्द्रपुरी आश्रम तक ले गयी, अजीब सी शांति थी बाबा के आश्रम में। इसी तरह पड़ाव पर स्थित अवधूत भगवान राम के आश्रम में पड़ोस वाले जीजा अनिल सिंह, रीवा के साथ जाना हुआ, वहां पर वही सुकून और शांति थी, जैसी बाबा कीनाराम जी के आश्रम में थी।
एक दिन मित्रों के बिना कबीरचौरा स्थित कबीर मठ में जाना हुआ। वहां संत कबीरदास जी के समाधि मंदिर का दर्शन मिला और मंदिर परिसर में जगह-जगह कबीरदास जी के दोहे अंकित मिले, उनको पढ़ना शुरू किया तो बाबा कबीर के कई दोहों में "साईं" शब्द का प्रयोग दिखा। जिज्ञासा हुई कि यह क्या है, साईं बाबा तो १९वीं व २०वीं शताब्दी के हैं और कबीरदास जी १५वीं या १६वीं शताब्दी के थे तो फिर साईं नाम का माजरा क्या है? आखिर कबीरदास जी ने अपने दोहों साईं नाम प्रयोग इतना क्यूं किया है? इसका उत्तर मिला, जब श्री साईं सत् चरित्र का अध्यन किया तो पाया कि सत् चरित्र के पहले ही अध्याय में कबीरदास जी के दोहे का वर्णन है अर्थात हर संत, हर फ़कीर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और सबके दोहों, उपदेशों, विचारों, आदि का निष्कर्ष मात्र एक है और वह है, "मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है!" या फिर कह लीजिए "मानव प्रेम ही ईश्वर प्रेम है!"
...... शेष अध्याय - २
सत् चरित्र और अंशुमान पर उसके प्रभाव का विवरण आगामी अध्यायों में मिलेगा।
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