संतमत: "ढाई आखर प्रेम के पड़े सो पंडित होई"
जगह-जगह मंदिर होते है ताकि हमें याद रहे की भगवान भी है, हम कितने भी अधार्मिक है अगर हमारे दिल में थोडा सा भी भाव है या डर है भगवान के लिए तो कही भी गली, नुक्कड़ पे कोई मंदिर दिख जाता है तो हम झुक के नमस्कार करते है।
संतो ने जगह-जगह मंदिरों की स्थापना की ताकि इसी बहाने हम झुकना सिख जाये, हम हर गुरूद्वारे, मंदिर - मस्जिद में झुकते है, हर चर्च में घुटनों के बल बैठ जाते है, घुटने टेक देते है भगवान के आगे, इस विचार धारा के साथ कि "मै नहीं तू ही है"।
तो भगवान ने जो ज्ञान उतरा था वेद-शास्त्रों में वो संस्कृत में था, ब्राम्हण को भाषा आती थी, तो उन शास्त्रों पे अधिकार हो गया ब्राम्हणों का वे अपने आप को ज्ञान के ज्ञाता कहलाने लग गए, और शोषण करने लग गए।
हर मंदिर में पंडित बैठा है, भगवान और भक्त के बीच में पंडित खड़ा है और वो ये कहता है मै जो मंतर पडूंगा, तभी तो भगवान सुनेगा।
वहा द्वारका और दुरसे तीर्थ क्षेत्रो में देखो तो पंडित घूमते रहते है की मेरे से पूजा करा लो ये-ये फल, पुण्य मिलेंगा बहोत उकसाते है और हम भी ठगे जाते है, जबकि भगवान् & भक्त के बिच पंडित का कोई काम ही नहीं है ।
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