Sunday 29 August 2021

चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-

उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक सज्जन मेरे पास आये। उन्होंने बताया कि आज़ाद शहीद हो गए हैं और उनके शव को लेने के लिए मुझे इलाहाबाद बुलाया गया है। उसी रात्रि को साढ़े चार बजे की गाडी से मैं  इलाहाबाद  के लिए रवाना हुआ। झूँसी स्टेशन पहुँचते ही एक तार मैंने सिटी मजिस्ट्रेट को दिया कि आज़ाद मेरा सम्बन्धी है, लाश डिस्ट्रॉय न की जाये।   इलाहबाद  पहुँचकर   मैं आनंद भवन पहुँचा तो कमला नेहरू से मालूम हुआ कि शव पोस्टमार्टम के लिए गया हुआ है। मैं सीधा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बँगले पर गया वहाँ उन्होंने बताया कि आप पुलिस सुपरिंटेंडेंट से मिल लीजिये। शायद शव   को जला दिया गया होगा। मुझे पता नहीं कि शव कहाँ है, मैं सुपरिंटेंडेंट से मिला तो उन्होंने मुझसे बहुत वाद-विवाद किया। उसके बाद उन्होंने मुझे भुलावा देकर एक खत दारागंज के दरोगा के नाम से दिया कि त्रिवेणी पर लाश गयी है, पुलिस की देखरेख में इनको अंत्येष्टि क्रिया करने दी जाये। बंगले से बाहर निकला तो थोड़ी ही दूर पर पूज्य मालवीय जी के पौत्र श्री पद्मकांत मालवीय जी दिखाई दिए। उन्हें पता चला था कि मैं आया हुआ हूँ। उनकी मोटर पर बैठकर हम दारागंज पुलिस थानेदार के पास गए। वे हमारे साथ मोटर में त्रिवेणी गए। वहाँ कुछ था ही नहीं। हम फिर से डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के बंगले की तरफ जा रहे थे कि एक लड़के ने मोटर रुकवा कर बताया कि शव को रसूलाबाद ले गए हैं।”

“रसूलाबाद पहुंचे तो चिता में आग लग चुकी थी। अंग्रेज सैनिकों ने मिट्टी का तेल चिता पर छिड़क कर आग लगा दी थी और आस पास पड़ी फूस भी डाल दी थी ताकि आग और तेज हो जाये। पुलिस काफी थी। इंचार्ज अफसर को चिट्ठी दिखाई तो उसने मुझे धार्मिक कार्य करने की आज्ञा दे दी। हमने फिर लकड़ी आदि मंगवाकर विधिवत दाह संस्कार किया। चिता जलते जलते श्री पुरुषोत्तमदस टंडन एवं कमला नेहरू भी वहाँ आ गयीं थीं। करीब दो-तीन सौ आदमी जमा हो गए। चिता के बुझने के बाद अस्थि-संचय मैंने किया। इन्हें मैंने त्रिवेणी संगम में विसर्जित कर दिया। कुछ राख एक पोटली में मैंने एकत्रित की तथा थोड़ी सी अस्थियाँ पुलिस वालों की आँखों में धुल झोंक कर मैं लेता आया। उन अस्थियों में से एक आचार्य नरेंद्रदेव भी ले गए थे। शायद विद्यापीठ में जहाँ आज़ाद के स्मारक का पत्थर लिखा है, वहां उन्होंने उस अस्थि के टुकड़े को रखा है। सांयकाल काले कपडे में आज़ाद की भस्मी का चौक पर जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरूद्ध हो गयी। ऐसा लग रहा था मानो सारा देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। जलूस के बाद एक सभा हुई। सभा को क्रांतिधर्मा शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सन्बोधित करते हुए कहा-जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही चंद्रशेखर आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। शाम की गाडी से मैं बनारस चला गया और वहां विधिवत शास्त्रोक्त ढंग से आज़ाद का अंतिम संस्कार किया।”

Thursday 18 March 2021

श्री साईं सत् चरित्र का निःशुल्क वितरण - सम्पर्क करे #9415221561

सद्गुरु श्री शिर्डी साईंनाथ महाराज जी की कृपा से "श्री साईं सत् चरित्र (हिन्दी)" की श्रीप्रति के निःशुल्क वितरण का प्रयास गुरुवर की सेवा में ज़ारी है। 
जिस किसी को भी "श्री साईं सत् चरित्र" की श्रीप्रति प्राप्त करने की कामना हो, वह मोबाइल सं. #9415221561 पर अंशुमान दुबे, संस्थापक व अध्यक्ष, Kashi Sai Foundation, Varanasi से सम्पर्क करने का कष्ट कर सकता है। 
शिर्डी से श्रीप्रति प्राप्त होते ही #बाबा की सेवा के रुप में आपके पास "श्री साईं सत् चरित्र" श्रीप्रति को उपलब्ध करा दिया जायेगा।
सादर धन्यवाद व अभिनंदन।
।।ॐ साईं राम।।
विशेष:- "श्री साईं सत् चरित्र" #शिर्डी स्थित "श्री साईबाबा संस्थान विश्वस्तव्यवस्था, शिर्डी" द्वारा प्रकाशित है। मूल ग्रन्थ 'मराठी भाषा' को लिपिबद्ध "कै. श्री गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर उर्फ हेमाडपन्त जी" ने किया है तथा उसका हिन्दी में अनुवाद "श्री शिवराम ठाकुर जी" के द्वारा किया गया है।
आप दोनों महान साईं भक्तों और प्रकाशन से वितरण तक सम्मिलित सभी साईं सेवादारों को कोटिशः धन्यवाद एवं आभार।
http://kashisai.blogspot.com/
#श्रद्धाॐसबुरी #बाबाकृपा #AdvAnshuman #अंशुमानदुबे #काशीसाईं #KashiSai @KashiSai @AdvAnshuman

Wednesday 17 February 2021

मैं और मेरे साईं :: अध्याय - १ "साईं नाम से साक्षात्कार" :: अंशुमान दुबे @KashiSai

अध्याय १ :: "साईं नाम से साक्षात्कार"
वाराणसी। अंशुमान दुबे की आयु लगभग ८ या ९ वर्ष रही होगी, जब पहली बार साईं नाम कानों में पड़ा। साईं नाम का‌ वह उच्चारण पूज्य पितामह श्री शारदा प्रसाद दुबे जी के मुखारविंद से निकला‌ था। जब उन्होंने कहा कि शिर्डी वाले साईं बाबा संत हैं और वे भारत की संत परंपरा की अग्रिम ‌कड़ी हैं, जैसे कबीर, रैदास, ज्ञानेश्वर, कीनाराम, अवधूत भगवान राम, आदि।
उन्होंने ‌बताया संतों की न जाति होती है, न मज़हब। वे तो मानवता के कल्याण हेतु आते हैं और जब तक रहते हैं मानवता का कल्याण करते रहते हैं तथा संतों के शरीर त्याग करने के बाद भी संतों‌‌ का ज्ञान, विचार, उपदेश, आदि मानवता ‌का हित सदैव‌ करते रहते हैं। श्रद्धेय ‌पितामह की इन बातों ने दिमाग के किसी कोने में अपनी जगह बना ली। 
समय बीता और १९८४ के मई‌ माह में दादा जी पंडित शारदा प्रसाद दुबे जी के शरीर‌ ने हम सबका साथ छोड़ दिया, परिवार ग़म में डूबा था और ९ वर्षीय अंशुमान अपने दादा‌ की याद में दादी धनवती दुबे का सहारा बनकर, दादी के लाड प्यार में खो‌ गया। साल दर साल बीते और अंशुमान ९वीं कक्षा का छात्र हो गया और १९९० के दशक में साइकिल बहुत बड़ी चीज़ होती थी और अब अंशुमान के मित्रों के पास साइकिल आ चुकी थी। बाल मण्डली प्रसन्न थी, अंशुमान भी अपने मित्रों की साइकिल आने से बहुत खुश था क्योंकि योजना के अनुसार मित्रगण अंशुमान को साइकिल सीखाने वाले थे। अंशुमान ने अपने मित्र मीसम रज़ा की साइकिल से एनी बेसेंट की बगिया सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल, कमच्छा के मैदान में साइकिल सीख ली।
साइकिल सीखने के बाद घूमने का कार्यक्रम मित्रों की बीच बना और तय हुआ कि सब साथ में संकटमोचन मंदिर में दर्शन करने जायेंगे। स्कूल लंच के बाद छोड़कर मित्र संजीव कुमार सिंह की साइकिल पर सवार होकर हम चार छः मित्रों का समूह संकटमोचन मंदिर के पीछे वाले रास्ते पर पहुंचा‌। मित्रगण अंशुमान, संजीव, राकेश, राजकिशोर, मनीष सबने एख साथ बाबा संकटमोचन के दर्शन करने को मंदिर परिसर में पीछे के रास्ते से प्रवेश किया। दर्शन करके मंदिर के बाहर अंशुमान सबसे पहले बाहर आ गया और मित्रों की प्रतीक्षा में मंदिर के इधर उधर टहलने लगा। तभी अंशुमान की नज़र संकटमोचन मंदिर की दीवार से सटे हुए छोटे से मंदिर पर पड़ी। अंशुमान कौतूहल वश मंदिर के समीप पहुंचा, तो देखता है कि वह छोटासा मंदिर शिर्डी साईं बाबा का है। बाबा की प्रतिमा और मंदिर पर लगे शिलापट्ट पर साईं बाबा का नाम पढ़कर अंशुमान ने प्रणाम किया और वहां रखी चरण पादुका को भी नमन किया। तभी मित्रों ने आवाज़ दी और साईं बाबा की प्रतिमूर्ति का प्रथम दर्शन प्राप्त कर अंशुमान अपने मित्रों के साथ स्कूल के लिए वापसी को चल पड़ा।
इस प्रकार अंशुमान के जीवन में साईं नाम की यात्रा का श्रीगणेश हुआ। समय बीता और अंशुमान ने मंदिरों, गुरुद्वारा, चर्चों, दरगाहों, आदि में मित्रों के साथ तो कभी अकेले आना जाना शुरू किया। वहां उपस्थित पुजारियों, पादरियों, ग्रंथियों, आदि के द्वारा परमात्मा के संदर्भ में कही बातों को सुना और समझने का प्रयास किया। इस घुमक्कड़ी पन की आदत अंशुमान को बाबा कीनाराम जी के रवीन्द्रपुरी आश्रम तक ले गयी, अजीब सी शांति थी बाबा के आश्रम में‌। इसी तरह पड़ाव पर स्थित अवधूत भगवान राम के आश्रम में पड़ोस वाले जीजा अनिल सिंह, रीवा के साथ जाना हुआ, वहां पर वही सुकून और शांति थी, जैसी बाबा कीनाराम जी के आश्रम में थी। 
एक दिन मित्रों के बिना कबीरचौरा स्थित कबीर मठ में जाना हुआ। वहां संत कबीरदास जी के समाधि मंदिर का दर्शन मिला और मंदिर परिसर में जगह-जगह कबीरदास जी के दोहे अंकित मिले, उनको पढ़ना शुरू किया तो बाबा कबीर के कई दोहों में "साईं" शब्द का प्रयोग दिखा।  जिज्ञासा हुई कि यह क्या है, साईं बाबा तो १९वीं व २०वीं शताब्दी के हैं और कबीरदास जी १५वीं या १६वीं शताब्दी के थे तो फिर साईं नाम का माजरा क्या है? आखिर कबीरदास जी ने अपने दोहों साईं नाम प्रयोग इतना क्यूं किया है? इसका उत्तर मिला, जब श्री साईं सत् चरित्र का अध्यन किया तो पाया कि सत् चरित्र के पहले ही अध्याय में कबीरदास जी के दोहे का वर्णन है अर्थात हर संत, हर फ़कीर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और सबके दोहों, उपदेशों, विचारों, आदि का निष्कर्ष मात्र एक है और वह है, "मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है!" या फिर कह लीजिए "मानव प्रेम ही ईश्वर प्रेम है!"
...... शेष अध्याय - २
सत् चरित्र और अंशुमान पर उसके प्रभाव का विवरण आगामी अध्यायों में मिलेगा।

चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-

उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...