Sunday 29 November 2009

Friday 27 November 2009

आतंकवाद से लड़ने की पहल : 1

२३-११-२००७ में कोर्ट ब्लास्ट में घायल अधिवक्ता की आर्थिक सहायता:-



छाया चित्र चेक व स्मृति चिन्ह प्रदान करते हुए

समाचार (News) जिसको संज्ञान लेकर काशी साईं ने कोर्ट ब्लास्ट में घायल की आर्थिक सहायता करने का फैसला लिया गया


आर्थिक सहायता के चेक (Cheque) की फोटोकॉपी


आर्थिक सहायता के पत्र (letter) की फोटोकॉपी

समाचार पत्र (News Paper) में प्रकाशन हेतु

Thursday 26 November 2009

कबीर ने कहा है: भाग - 23

कबीर ने कहा है, कि.....
"कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा।"

शहीद की माँ : हरिवंशराय बच्चन

श्री बच्चन जी की यह कविता 23/11/2007 (उत्तर प्रदेश कोर्ट ब्लास्ट) 26/11/2008 (मुंबई हमला) में शहीद जवानों व भारतीयों को व उनके परिवार को शत शत नमन के साथ समर्पित है:-




इसी घर से
एक दिन
शहीद का जनाज़ा निकला था,
तिरंगे में लिपटा,
हज़ारों की भीड़ में।
काँधा देने की होड़ में
सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
पुट्ठे छिले थे।
भारत माता की जय,
इंकलाब ज़िन्दाबाद, (2009 में शायद यह होना चहिये "अमर शहीद जवान ज़िन्दाबाद")
अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद (2009 में शायद यह होना चहिये "आतंकवाद व भ्रष्टाचार मुर्दाबाद")
के नारों में शहीद की माँ का रोदन
डूब गया था।
उसके आँसुओ की लड़ी
फूल, खील, बताशों की झडी में
छिप गई थी,
जनता चिल्लाई थी-
तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
गली किसी गर्व से दिप गई थी।




इसी घर से
तीस बरस बाद
शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
तिरंगे में लिपटा नहीं,
(क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
लोगों के लिये विहित है)
केवल चार काँधों पर
राम नाम सत्य है
गोपाल नाम सत्य है
के पुराने नारों पर;
चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
गली किसी राहत सेछुई छुई।

Kashi Sai Image : Part - 22


Thursday's Sai Vani: Part - 1

Thursday's Sai Vani:
"God is the master, None else is the master. His actions are supernatural, invaluable & full of wisdom."

Wednesday 25 November 2009

काहे ते हरि मोहिं बिसारो : तुलसीदास

काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥१॥
पतित-पुनीत दीन हित असुरन सरन कहत स्त्रुति चारो।
हौं नहिं अधम सभीत दीन ? किधौं बेदन मृषा पुकारो॥२॥
खग-गनिका-अज ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥३॥
जो कलिकाल प्रबल अति हो तो तुव निदेस तें न्यारो।
तौ हरि रोष सरोस दोष गुन तेहि भजते तजि मारो॥४॥
मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहि त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो॥५॥
नाहिन नरक परत मो कहँ डर जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दास तुलसी प्रभु नामहु पाप न जारो॥६॥

Tuesday 24 November 2009

प्यार और ध्यान

संतमत: "ढाई आखर प्रेम के पड़े सो पंडित होई"
जगह-जगह मंदिर होते है ताकि हमें याद रहे की भगवान भी है, हम कितने भी अधार्मिक है अगर हमारे दिल में थोडा सा भी भाव है या डर है भगवान के लिए तो कही भी गली, नुक्कड़ पे कोई मंदिर दिख जाता है तो हम झुक के नमस्कार करते है।
संतो ने जगह-जगह मंदिरों की स्थापना की ताकि इसी बहाने हम झुकना सिख जाये, हम हर गुरूद्वारे, मंदिर - मस्जिद में झुकते है, हर चर्च में घुटनों के बल बैठ जाते है, घुटने टेक देते है भगवान के आगे, इस विचार धारा के साथ कि "मै नहीं तू ही है"।
तो भगवान ने जो ज्ञान उतरा था वेद-शास्त्रों में वो संस्कृत में था, ब्राम्हण को भाषा आती थी, तो उन शास्त्रों पे अधिकार हो गया ब्राम्हणों का वे अपने आप को ज्ञान के ज्ञाता कहलाने लग गए, और शोषण करने लग गए।
हर मंदिर में पंडित बैठा है, भगवान और भक्त के बीच में पंडित खड़ा है और वो ये कहता है मै जो मंतर पडूंगा, तभी तो भगवान सुनेगा।
वहा द्वारका और दुरसे तीर्थ क्षेत्रो में देखो तो पंडित घूमते रहते है की मेरे से पूजा करा लो ये-ये फल, पुण्य मिलेंगा बहोत उकसाते है और हम भी ठगे जाते है, जबकि भगवान् & भक्त के बिच पंडित का कोई काम ही नहीं है ।

Paralysed, speech affected, Advocate Mishra back in court

Paralysed, speech affected, advocate Mishra back in court:
Manish Sahu / Tags : Mishra back in court / Posted: Monday , Nov 23, 2009 at 0544 hrs Lucknow: / on .indianexpress.com <http://www.indianexpress.com/news/paralysed-speech-affected-advocate-mishra-back-in-court/545032/0>

Two years after he was crippled in the bomb blast that rocked the Varanasi local court complex on November 23, 2007, advocate Vashisht Kumar Mishra has started picking up the pieces.

Though he needs help to stand and walk, Mishra recently began attending the court. Inside the courtroom, his juniors argue cases under his guidance as he remains seated.

With the lower half of his body affected by paralysis, the explosion had also caused disorder in his nervous system — his teeth keeps chattering causing him oral injuries. To prevent it, he stuffs his mouth with pads that prevent him from talking. But slowly and steadily, his clients are returning to him — a sign that makes him hopeful about life.

“One of my colleagues, who lives close to my place, takes me to the court every morning and drops me home,” says 48-year-old Mishra. He has to make regular visits to the Banaras Hindu University Hospital and Lucknow-based Vivekanand Hospital for treatment, which includes physiotherapy.

For Mishra and his family, the worst is over and for the first time in two years, they are hopeful that he would be leading a normal life.

Since Mishra was the sole breadwinner, the injury and long treatment had hit his family hard. His daughters — Pratika Mishra, Neharika and Vartika — had to discontinue their studies. “Since there was no help, we started taking tuitions at home,” says Pratika. “Our savings were spent, I had to sell my jewellery and our ancestral land in the village to pay hospital bills,” says Mishra’s wife Urmila.

Though the government had promised to meet the medical expenses of all the victims of the court blasts, the family has received only the initial Rs 50,000 — which was spent within a month. The total medical cost that Mishra had to bear now amounts to Rs 4 lakh.

Despite submitting his bills to Varanasi District Magistrate Ajay Upadhyay and making several rounds to government offices, the family’s wait for money continues.

When The Indian Express asked about the status of Mishra’s medical bills, Upadhyay said: “We have forwarded all the bills to the state government and I have sent reminders too.”

Nevertheless, the family is getting on. “I have now started contributing money to the house. I have asked my daughters to once again start their studies,” says Mishra. While Pratika and Neharika is pursing their Masters in botany and physics, the youngest, Vartika is doing her graduation in commerce.

For Mishra, the blast was very tragic. Not only because of his own injury but also because he saw his clerk, Ajay Pandey, junior attorney Brahm Prakash Sharma and seven others die.

He was so badly injured in the blast that he slipped into coma for 28 days and had to stay in hospital for six months.

Friday 20 November 2009

पैगम्बर

पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्ल। 22 अप्रैल ईस्वी 571 को अरब में पैदा हुए। 8 जून 632 ईस्वी को आपकी वफात हुई। होनहार बिरवा के चिकने चिकने पात। बचपन में ही आपको देखकर लोग कहते, यह बच्चा एक महान आदमी बनेगा। एक अमेरिकी ईसाई लेखक ने अपनी पुस्तक में दुनिया के 100 महापुरुषों का उल्लेख किया है। इस वैज्ञानिक लेखक माइकल एच. हार्ट ने सबसे पहला स्थान हजरत मुहम्मद (सल्ल.) को दिया है। लेखक ने आपके गुणों को स्वीकारते हुए लिखा है।
आप इतिहास के एकमात्र व्यक्ति हैं, जो उच्चतम सीमा तक सफल रहे। धार्मिक स्तर पर भी और दुनियावी स्तर पर भी।
इसी तरह अँगरेज इतिहासकार टॉम्स कारलाइल ने आप सल्ल को ईशदूतों का हीरो कहा है। आइए देखें। वे क्या गुण हैं जिनके कारण आपको इतना ऊँचा स्थान दिया जाता है।
आप सल्ल, ने सबसे पहले इंसान के मन में यह विश्वास जगाया कि सृष्टि की व्यवस्था वास्तविक रूप से जिस सिद्धांत पर कायम है, इंसान की जीवन व्यवस्था भी उसके अनुकूल हो, क्योंकि इंसान इस ब्रह्मांड का एक अंश है और अंश का कुल के विरुद्ध होना ही खराबी की जड़ है। दूसरे लफ्जों में खराबी की असल जड़ इंसान की अपने प्रभु से बगावत है। आपने बताया कि अल्लाह पर ईमान केवल एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं बल्कि यही वह बीज है, जो इंसान के मन की जमीन में जब बोया जाता है तो इससे पूरी जिंदगी में ईमान की बहार आ जाती है। जिस मन में ईमान है, वह यदि एक जज होगा तो ईमानदार होगा।
एक पुलिसमैन है तो कानून का रखवाला होगा एक व्यापारी है तो ईमानदार व्यापारी होगा। सामूहिक रूप से कोई राष्ट्र खुदापरस्त होगा तो उसके नागरिक जीवन में, उसकी राजनीतिक व्यवस्था में, उसकी विदेश राजनीति, उसकी संधि और जंग में खुदापरस्ताना अखलाक व किरदार की शान होगी। यदि यह नहीं है तो फिर खुदापरस्ती का कोई अर्थ नहीं। आइए, हम देखें कि आपकी शिक्षाएँ समाज के प्रति क्या हैं।
'जिस व्यक्ति ने खराब चीज बेची और खरीददार को उसकी खराबी नहीं बताई, उस पर ईश्वर का प्रकोप भड़कता है और फरिश्ते उस पर धिक्कार करते हैं।' 'ईमान की सर्वश्रेष्ठ हालत यह है कि तेरी दोस्ती और दुश्मनी अल्लाह के लिए हो।
तेरी जीभ पर ईश्वर का नाम हो और तू दूसरों के लिए वही कुछ पसंद करे, जो अपने लिए पसंद करता हो और उनके लिए वही कुछ नापसंद करे जो अपने लिए नापसंद करता हो।' 'ईमान वालों में सबसे कामिल ईमान उस व्यक्ति का है जिसके अखलाक सबसे अच्छे हैं और जो अपने घर वालों के साथ अच्छे व्यवहार में सबसे बड़ा है।'
'असली मुजाहिद वह है, जो खुदा के आज्ञापालन में स्वयं अपने नफ्स (अंतरआत्मा) से लड़े और असली मुहाजिर (अल्लाह की राह में देश त्यागने वाला) वह है, जो उन कामों को छोड़ दे जिन्हें खुदा ने मना किया है।'
*'मोमिन सब कुछ हो सकता है, मगर झूठा और विश्वासघात करने वाला नहीं हो सकता।' 'जो व्यक्ति खुद पेटभर खाए और उसके पड़ोस में उसका पड़ोसी भूखा रह जाए, वह ईमान नहीं रखता।''जिसने लोगों को दिखाने के लिए नमाज पढ़ी उसने शिर्क किया, जिसने लोगों को दिखाने के लिए रोजा रखा उसने शिर्क किया और जिसने लोगों को दिखाने के लिए खैरात की उसने शिर्क किया।'
'चार अवगुण ऐसे हैं कि जो यदि किसी व्यक्ति में पाए जाएँ तो वह कपटाचारी- अमानत मैं विश्वासघात करे, बोले तो झूठ बोले, वादा करे तो तोड़ दे और लड़े तो शराफत की हद से गिर जाए। 'जो व्यक्ति अपना गुस्सा निकालने की ताकत रखता है और फिर बर्दाश्त कर जाए उसके मन को खुदा ईमान से भर देता है।'
'जानते हो कयामत के दिन खुदा के साए में सबसे पहले जगह पाने वाले कौन लोग हैं। आपके साथियों ने कहा कि अल्लाह और उसका रसूल ज्यादा जानते हैं। आपने फरमाया कि उनके समक्ष सत्य पेश किया गया तो उन्होंने मान लिया और जब भी उनसे हक माँगा गया तो उन्होंने खुले मन से दिया और दूसरों के मामले में उन्होंने वही फैसला किया, जो स्वयं अपने लिए चाहते थे।'
'जन्नत में वह गोश्त नहीं जा सकता, जो हराम के निवालों से बना हो। हराम माल खाने से पहले पले हुए जिस्म के लिए तो आग ही ज्यादा बेहतर है।'
"जैसा भाव रहा जिस जन का,वैसा रूप रहा मेरे मन का" - बाबा

Thursday 19 November 2009

कबीर ने कहा है: भाग - 22

कबीर ने कहा है, कि.....
"चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी।"

Tuesday 17 November 2009

श्री साईं अमृत

श्री साईं अमृत:

सुखदायक सिद्ध साईं के नाम का अमृत पी
दुख: से व्याकुल मन तेरा भटके ना कभी
थामे सब का हाथ वो, मत होई ये भयभीत
शिरडी वाला परखता संत जनों की प्रीत
साई की करुणा के खुले शत-शत पावन द्वार
जाने किस विध हो जाये तेरा बेडा पार
जहाँ भरोसा वहाँ भला शंका का क्या काम
तु निश्चय से जपता जा साई नाम अविराम
ज्योर्तिमय साई साधना नष्ट करें अंधकार
अंतःकरण से रे मन उसे सदा पुकार
साई के दर विश्वास से सर झुका नही इक बार
किस मुँह से फिर मांगता क्या तुझको अधिकार
पग – पग काँटे बोई के पुष्प रहा तू ढूंढ
साई नाम के सादे में ऐसी नही है लूट
मीठा – मीठा सब खाते कर-कर देखो थूक
महालोभी अतिस्वार्थी कितना मूर्ख तू
न्याय शील सिद्ध साई से जो चाहे सुख भी
उसके बन्दो तू भी न्याय तो करना सीख
परमपिता सत जोत से क्यूं तूं कपट करे
वैभव उससे मांग कर उसे भी श्रद्धा दे
साई तेरी पारबन्ध के बदले है सत्यालेक
कभी मालिक की ओर तू सेवक बनकर देख
छोड़ कर इत उत छाटना भीतर के पट खोल
निष्ठा से उसे याद कर मत हो डाँवाडोल
साई को प्रीतम कह प्रीत भी मन से कर
बीना प्रीत के तार हिले मिले ना प्रिय से वर
आनन्द का वो स्त्रोत है करुना का अवतार
घट घट की वो जानता महा योगी सुखकार।

Sunday 15 November 2009

मुँशी प्रेमचन्द का जीवन परिचय (Premchand's Biography)

जन्म :-
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर समही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन :-
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शिक्षा :-
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि :-
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला। आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।
व्यक्तित्व :-
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था :-
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"
प्रेमचन्द की कृतियाँ :-
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु :-
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

Saturday 14 November 2009

HAZRAT NIZAMUDDIN

Hazrat Nizamuddin is very popular even today, died at the age of 82 in April 1325 CE and witnessed ruling of thirteen rulers ascend the throne of Delhi. The shaikh's ancestors were migrated from Bukhara in Uzbekistan to Badayun in UP following the troubles from the Mongols. Thus a privileged family became in total poverty. The Shaikh's father died early and the widowed mother used to say"Nizamuddin, today we are the guests of God," which meant there was nothing to eat in the house.

Nizamuddin travelled to Delhi and made his asram at now known as Nizamuddin. His many devotees included the rich, poor, learned, illiterate, villagers, soldiers, Hindus and Muslims. His kitchen supplied food to thousands of people every day.Provisions for the kitchen were not kept for than a week. The Shaikh ate rarely, tearfully confessing the trouble he had swallowing food when there were countless people starving in Delhi.

One hot day in summer, some houses in the neighbourhood caught fire. Barefooted, the Shaikh rushed to the site, standing there until the fire was completely doused. He personally counted the houses that had been burnt and appointed his deputy to compensate the affected families with two silver coins, food and water.

Nizamuddin believed that although many ways to lead to the God, none was more effective than bringing happiness to the human heart. The shaikh also taught that happiness was not in amazing wealth but distributing it. The Shaikh also preached that revenge is the law of jungle."If a man puts a thorn in your way and you also put thorn in his way, there will be thorns everywhere."

Nizamuddin desired to be buried under the open sky.But Sultan Mohammad Bin Tughlaq built a dome over his grave. Hearing the loss of his mentor on returning from Bengal, his devotee, the poet Amir Khusrau, tore his clothes, blackened his face and re- cited his last verse,


"Gori sove sej per much par dhar khes
chal Khusrau ghar aapne, rain bhare sab des"

Friday 13 November 2009

जो बीत गई सो बात गयी : हरिवंशराय बच्चन

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गये फ़िर कहां मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियां
मुरझाईं कितनी वल्लरियां
जो मुरझाईं फ़िर कहां खिली
पर बोलो सूखे फ़ूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फ़ूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई

Thursday 12 November 2009

कबीर ने कहा है : भाग - 21

कबीर ने कहा है, कि...
"आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी।"

Tuesday 10 November 2009

आज़ादी के दीवाने : चन्द्रशेखर आजाद

ऐसे थे चन्द्रशेखर
एक बार भगतसिंह ने बातचीत करते हुए चन्द्रशेखर आजाद से कहा, ‘पंडित जी, हम क्रान्तिकारियों के जीवन-मरण का कोई ठिकाना नहीं, अत: आप अपने घर का पता दे दें ताकि यदि आपको कुछ हो जाए तो आपके परिवार की कुछ सहायता की जा सके।'

चन्द्रशेखर सकते में आ गए और कहने लगेल, ‘पार्टी का कार्यकर्ता मैं हूँ, मेरा परिवार नहीं। उनसे तुम्हें क्या मतलब? दूसरी बात, ‘उन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है और न ही मुझे जीवनी लिखवानी है। हम लोग नि:स्वार्थभाव से देश की सेवा में जुटे हैं, इसके एवज में न धन चाहिए और न ही ख्याति।

आजाद :-
तुम्हारा नाम?
'आजाद'
बाप का नाम?
'स्वाधीनता'
घर?
'जेलखाना!’

अँग्रेज जज गुस्से से दांत पिसने लगा। अदालत में पेश किया गया, यह निडर नौजवान था - अमर शहीद 'चन्द्रशेखर आजाद।'

Saturday 7 November 2009

मौत तू एक कविता है : गुलज़ार

मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

(इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डा. भास्कर बैनर्जी के लिये लिखा गया था। इस चरित्र को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था)

Thursday 5 November 2009

कबीर ने कहा है : भाग - 20

कबीर ने कहा है, कि....
"माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला

धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो।"

Tuesday 3 November 2009

मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे : गुलज़ार

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे

चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-

उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...