Saturday, 1 August 2009

साईं ने कहा है : भाग - 115

साईं ने कहा है, कि.....
सत्संग और संतो का सानिध्य चित शुद्धीका सर्वोत्तम साधन है।"

Friday, 31 July 2009

ख़ुदा का फ़रमान : इक़बाल

उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो
ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो

गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से
कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो

सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना
जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो

क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे
पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो

मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से
मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो

तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है
आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मशरिक़ को सिखा दो

मातृभाषा प्रेम पर दोहे : भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।


अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।


उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय

निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।


निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय

लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।


इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग

तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।


और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात

निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।


तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय

यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।


विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।


भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात

विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।


सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय

उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।


साईं ने कहा है : भाग - 114

साईं ने कहा है, कि.....
"ये सब ईश्वर की लीला है,
वो ही पीर हरेंगे,
हम उत्सुक क्यो हो।"

Kashi Sai Image : Part - 2

Thursday, 30 July 2009

वह अपनी नाथ दयालुता : भारतेंदु हरिश्चंद्र

वह अपनी नाथ दयालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वह जो कौल भक्तों से था किया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

व जो गीध था गनिका व थी व जो व्याध था व मलाह था
इन्हें तुमने ऊंचों की गति दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

जिन बानरों में न रूप था न तो गुन हि था न तो जात थी
उन्हें भाइयो का सा मानना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

खाना भील के वे जूठे फल, कहीं साग दास के घर पै चल
यूँही लाख किस्से कहूं मैं क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

कहो गोपियों से कहा था क्या, करो याद गीता की भी जरा
वानी वादा भक्त - उधार का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।

या तुम्हारा ही `हरिचंद´ है गो फसाद में जग के बंद है
है दास जन्मों का आपका तुम्हें याद हो कि न याद हो ।।


शक्ति और क्षमा : रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-

उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...