Monday 21 September 2009

इंशा जी उठो अब कूच करो : इंशा अल्लाह खां

"इंशा" जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी का लगाना क्या,
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब, जोगी का नगर में ठिकाना क्या।

इस दिल के दरीदा-दामन को देखो तो सही, सोचो तो सही,
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली को फैलाना क्या।

शब बीती चांद भी डूब गया ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में,
क्यों देर गये घर आये हो सजनी से करोगे बहाना क्या।

उस हुस्न के सुच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें,
जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या।

उस को भी जला दुखते हुए मन इक शोला लाल भभूका बन,
यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या।

जब शहर के लोग न रस्ता देखे क्यों वन में न जा विश्राम करे,
दीवानों की-सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या।

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उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...