Saturday 8 January 2011

गुरु भक्ति की पराकाष्ठा :-

गुरु भक्ति की पराकाष्ठा तब पहुँचती है, जब एक मुरीद ( शिष्य ) अपने मुर्शिद ( गुरु ) के लिये पूरी तरह से समर्पित हो जाता है । उसको अपने गुरु के सिवाय कुछ नही दिखता, कुछ नहीं सूझता। एक टीस, एक इंतज़ार रहता है कि कब वो आ मिलेंगे ।
इन शब्दों के जरिये मैने एक मुरीद की मुरादों को व्यक्त करने की कोशिश की है :-

मेरी चाहतों के हाथो मैं मजबूर हूँ,
मेरे इलाही, मेरे मालिक, तेरे नशे मैं चूर हूँ ।
रंग दुनिया के इन आँखों में अब बसते नहीं,
दर्द हो या हो खुशी, दोनों से मसरूफ़ हूँ ।
रंज की गलियों में भटकता हूँ मैं दर-बदर,
नहीं पता है अभी तेरे दर से कितना दूर हूँ ।
शब जब तक टूटती है सहर के उजालों में,
यादें मेरी सिसकती है तेरे ही खयालो में ।
है तड़प जब यहाँ पर तो होगी वहाँ भी,
जानता हूँ तेरे लिये मैं भी मंजिले-मक़सूद हूँ ।

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