पतझड़
क्यो ना आया तू मेरे भी जीवन में
गिर जाते पात मेरे भी पुराने, सूखे
और कुछ नई निकलती कोपले
नई पत्तिया और शाखाए भी।
जीवन चलता जा रहा है
लगातार एकरूपता में डूबा हुआ
क्या नही चाहिए
परिवर्तन, पतझड़ और झँझावात
वृक्ष की तरह ही
हमारे भी जीवन में।
......... समीर वत्स, ला स्कूल, वाराणसी।
Saturday, 27 June 2009
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