Saturday, 27 June 2009

आओ पतझड़

पतझड़
क्यो ना आया तू मेरे भी जीवन में
गिर जाते पात मेरे भी पुराने, सूखे

और कुछ नई निकलती कोपले
नई पत्तिया और शाखाए भी।
जीवन चलता जा रहा है
लगातार एकरूपता में डूबा हुआ
क्या नही चाहिए
परिवर्तन, पतझड़ और झँझावात
वृक्ष की तरह ही
हमारे भी जीवन में।
......... समीर वत्स, ला स्कूल, वाराणसी।

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