Wednesday 22 July 2009

पीर मेरी, प्यार बन जा ! : गोपालदास "नीरज"

पीर मेरी, प्यार बन जा !
लुट गया सर्वस्व, जीवन,
है बना बस पाप- सा धन,
रे हृदय, मधु-कोष अक्षय, अब अनल-अंगार बन जा !
पीर मेरी, प्यार बन जा !
अस्थि-पंजर से लिपट कर,
क्यों तड़पता आह भर भर,
चिरविधुर मेरे विकल उर, जल अरे जल, छार बन जा !
पीर मेरी, प्यार बन जा !
क्यों जलाती व्यर्थ मुझको !
क्यों रुलाती व्यर्थ मुझको !
क्यों चलाती व्यर्थ मुझको !
री अमर मरु-प्यास, मेरी मृत्यु ही साकार बन जा !
पीर मेरी, प्यार बन जा !

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