मनुष्य को हर सांस के साथ बाबा सांई का सुमिरन करते रहना चाहिए। किसी भी सांस को व्यर्थ करना मनुष्य के लिए उचित नहीं है क्योंकि न जाने कब सांस का आना जाना बंद हो जाए और यह जीवन लीला समाप्त हो जाए। अत: हर सांस व हर पल का प्रयोग बाबा का सुमिरन कर मानव को अपना जीवन सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए।जप-तप व संयम साधना ये सभी सुमिरन के अंदर ही आ जाते हैं। इस रहस्य को भक्त जन ही समझ सकते हैं कि सुमिरन के बराबर कुछ नहीं है अर्थात जप-तप और संयम के साधक भी सुमिरन का आधार किसी न किसी रूप में प्राप्त कर ही लेते हैं। परन्तु सुमिरन भक्त तो केवल सुमिरन में ही सभी सुख मानता है। प्रेम तो अनमोल है। इसका मूल्य कौन चुका सकता है। इस भाव को ध्यान में रखते हुए कबीर जी कहते हैं कि हमने प्रेम को बकते हुए सुना है परन्तु उसके बदले शीश काटकर देना पड़ता है। ऐसे में पूछताछ करने में विलम्ब न करो यह तो सस्ता ही है उसी क्षण शीश काटकर मोल चुका दो। जब तक हृदय में प्रेम न हो तब तक धैर्य नहीं होता और जब तक जीवन में विरह की व्याकुलता न हो तब तक वैराग्य नहीं होता कोई चाहे कितने भी यत्न कर ले इसी प्रकार बिना सदगरु के मन और हृदय के मैले दाग दूर नहीं हो सकते। काम, क्रोध, मद, लोभ-मोह एवं अन्य दुष्ट विचारों पर काबू पाना ही मानव का पहला कर्तव्य है क्योंकि इनके अधीन होने पर मानव वहशी हो जाता है।
उदाहरणार्थ :- जब आपके अंदर जब क्रोध आता है और अगर आपके नाखून लंबे-लंबे होते हैं तो आप डंडे की ओर न जाकर के नाखूनों से ही काम लेते हैं। वास्तव में क्रोध आने पर मानव इंसानियत को भूल जाता है और वह जानवरों से बदतर व्यवहार करने लग जाता है।
इसीलिए संतों ने काम, क्रोध, मोह व लोभ आदि के त्याग के लिए कहा है क्योंकि मानव में जब इन दुर्गुणों का समावेश होता है तो उसके अंदर गंदे विचार जन्म लेते है और उसका व्यवहार पशुवत होता जाता है। काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार आदि अवगुणों के त्याग में ही मानव हित निहित हैं।
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