Monday 18 May 2009

सुख-दुख मनुष्य के कर्मो का फल

भक्तों के जीवन में विपत्तियां आती रहती हैं, क्योंकि भगवान अपने भक्तों की परीक्षा लेते रहते हैं। इसलिए मनुष्य को विपत्तियों में हार न मानते हुए अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए।

जीवन का दु:ख उस व्यक्ति के कर्म की उत्पत्ति होती है, लेकिन जो विपत्ति उसे भगवान की ओर ले जाए, वह ईश्वर की उसके लिए परीक्षा होती है। जिस प्रकार भक्त प्रहलाद के जीवन में ऐसी कई विपत्तियां आई थीं, लेकिन उन्होंने किसी भी विपत्ति में भय को महसूस नहीं किया, क्योंकि उन्हें तो संसार की हर वस्तु में भगवान के साक्षात दर्शन होते थे। उन्होंने ज्ञानी भक्त को परिभाषित किया और कहा कि ज्ञानी भक्त वह होता है, जिसे हर ओर ईश्वर ही ईश्वर दिखाई दे।

भगवान का अवतार भक्त की रक्षा के लिए होता है। भक्त की रक्षा का अभिप्राय उनके प्राणों की रक्षा या जीविकोपार्जन से नहीं, बल्कि जब भक्त उनके विरह की वेदना से छटपटाने लगता है, तो वह उनके मार्गदर्शन के लिए आते हैं। ईश्वर दर्शन की तीन स्थितियां होती हैं-आयोग, संयोग और वियोग। ईश्वर के साथ जब तक मनुष्य का मिलन नहीं होता, उस स्थिति को आयोग कहते हैं। जब उनकी कृपा से भक्त को उनके दर्शन हो जाएं, तो उसे संयोग कहते हैं और जब ईश्वर दर्शन देने के बाद बिछड़ जाते हैं, तो वह स्थिति वियोग कहलाती है। वियोग बड़ा ही दु:खद होता है, क्योंकि उसके बाद भक्त ईश्वर से मिलने के लिए हमेशा बेचैन रहता है।

ईश्वर भक्त को किसी भी परिस्थिति से उबार सकते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके भक्त का हृदय स्वच्छ हो जाए और सभी विकार नष्ट होकर सद्गुणों का समावेश हो जाएं। वह उन्हें गर्व से अपना सके। इसलिए वे कठिन तप की परीक्षा लेते हैं। प्रभु के दर्शन उसी को हो सकते हैं, जो सच्चे मन से उनकी आराधना करता है। मनुष्य का शरीर भले ही कहीं पर हो, लेकिन उसका ध्यान परमात्मा की ओर होगा, तो वह प्रभु को जरूर प्राप्त करेगा।

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