Thursday 17 September 2009

रहीम के दोहे : भाग - 4

रहीम के दोहे :-

जो रहीम उत्‍तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्‍यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।


कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।


कदली सीप भुजंग मुख, स्‍वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन।।


दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।।


धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ई कौन है, जगत पिआसो जाय।।


बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस।
महिमा घटि सागर की, रावण बस्‍यो पड़ोस।।


रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिए, टूटे मुक्‍ताहार।।


समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय।
सदा रहे नहिं एकसो, का रहिम पछिताय।।

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