Tuesday 30 June 2009

हरि समान दाता कोउ नाहीं : मलूकदास

हरि समान दाता कोउ नाहीं।
सदा बिराजैं संतनमाहीं॥१॥
नाम बिसंभर बिस्व जिआवैं।
साँझ बिहान रिजिक पहुँचावैं॥२॥
देइ अनेकन मुखपर ऐने।
औगुन करै सोगुन करि मानैं॥३॥
काहू भाँति अजार न देई।
जाही को अपना कर लेई॥४॥
घरी घरी देता दीदार।
जन अपनेका खिजमतगार॥५॥
तीन लोक जाके औसाफ।
जनका गुनह करै सब माफ॥६॥
गरुवा ठाकुर है रघुराई।
कहैं मूलक क्या करूँ बड़ाई॥७॥

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