दुई पाटन के बीच साबुत बचा न कोए।
कबीर पर ओशो कहते है, कि.....
"कबीर में हिंदू और मुसलमान संस्कृतियाँ जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में, प्रयाग में भी नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग-अलग मालूम होता है। कबीर में जल भरा भी अलग-अलग मालूम नहीं होता है। कबीर का संगम प्रयाग के संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहाँ कुरान और वेद ऐसे खो गए कि रेखा भी नहीं छूटी।"
पंद्रहवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक पहुँच चुका मानव अब भी अपने गिरेबाँ में झाँकने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल कबीर का दिवस मनाने का आशय अब इतना भर है कि जिसके सूत्र वाक्य हमारी पसंदगी को ललकारते हैं, उसे साल में केवल एक दिन याद करने की हमारी मजबूरी होती है- आज के दौर की आत्मवंचना यही है। इसिलिए कबीर आज भी प्रासंगिक है- लेकिन उपेक्षित।
संतों के मरने के बाद पत्थरों को पूजने और पत्थरों से मारने को कानून मानने वाली कौम क्या कभी कबीर का महत्व समझ पाएगी?
कबीर जब जीवित थे तब उन्हें पत्थर मारे गए, क्योंकि वे समाज की प्रचलित धारणाओं पर चोट कर भ्राँतियों के प्रति लोगों को सजग कर रहे थे। आश्चर्य की बात है कि जिस कवि ने कविता के माध्यम से अपनी सीधी-सच्ची, अटपटी वाणी द्वारा युग की तमाम गंदगी को झाड़-बुहारकर जनजाग्रति का कार्य किया, जो कि आज तक कोई कवि न कर सका- उसे पाखंडी हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा पत्थर मारे गए, क्योंकि उस फकीर के दोहे पंडितों और मुल्लाओं की दुकानदारी के खिलाफ बंद का ऐलान थे।
कबीर अनपढ़ होते हुए भी पंडितों और मौलवियों से लोहा लेकर, सड़ी-गली मान्यताओं और रिवाजों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे, जिसके फलस्वरूप इसी कौम द्वारा कबीर के हिंदू या मुसलमान होने के विवाद पर बँटवारे की परम्परा का निर्वाह करते हुए उनकी मृत्यु के समय 'मगहर' में झगड़ा-फसाद कर उनका भी बँटवारा किया गया।
एक ही स्थान को दो भागों में बाँटकर एक पर दरगाह और दूसरे पर समाधि बना दी गई। धिक्कार है ऐसी कौमों पर जो साम्प्रदायिक सोच के चलते संतों पर भी अपना कथित हक जताते हैं और उनकी मृत्यु के बाद उनके हिंदू या मुसलमान होने के मनगढ़ंत प्रमाण जुटाते हैं, क्योंकि उनकी कट्टरवादी आँखें संत की महानता पर भी सिर्फ अपनी कौम का ही ठप्पा देखना चाहती हैं।
कबीर ने जो कुछ कहा, अनुभूत सच कहा और सच लोगों को आसानी से पचता नहीं। आँखों से देखे और मस्तिष्क से परखे सत्य को कबीर जैसे कवि ने हृदय की वाणी बनाया और यही उनकी कविता का कालजयी काव्यामृत बना। कबीर ने रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए लोगों को उनके स्तर का ज्ञान उनकी भाषा में दिया। इसी से कबीर को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता मिली और वे लोकनायक कवि बने।
लेकिन क्या कबीर सिर्फ भक्तकवि थे। नहीं, कबीर ही वे साधक थे, जिन्होंने भक्ति भाव, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को पूर्ण स्वच्छ और सुंदर करने का प्रयास किया था और आने वाले युग में सूफी संतों तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रसखान के लिए भारत में फलने-फूलने और मानव जीवन के आदर्शों को बुलंदी तक पहुँचाने की पृष्ठभूमि तैयार की थी।
कबीर आजकल के कवियों की तरह कविता कर कवि बनने नहीं आए थे। वे कोई साहित्यकार नहीं थे। अपने साध्य या लक्ष्य पर अनुभव से कही सीधी-सच्ची-सपाट बात ही कबीर की कविता बनती गई और वह भी काम करते हुए। यानी जुलाहे का काम कर कपड़ा बुनते हुए उनकी कविताएँ भी बुनाती चली गईं।
उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ता चला गया।
कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है। उनकी एक रचना में यह सब कबीर ने कहा भी हैः-
साधो देखो जग बौराना।
साँची कहूँ तो मारन धावे,
झूठे जग पतियाना।
हिंदू कहे मोहि राम पियारा,
मुसलमान रहमाना,
आपस में दोऊ लड़ी मरत है,
मरम न काहु जाना।
बहुतक देखे नेमी धरमी
प्रातः करे असनाना,
आतम छाड़ि पाषाणै पूजे,
इनका थोथा ज्ञाना।
बहुतक देखे पीर औलिया,
पढ़ै किताब कुराना,
करै मुरीद कबर दिखलावै,
इनहु खुदा नहीं जाना।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
इनमें कोउ न दीवाना॥'
ऐसे कितने ही उपदेश कबीर के दोहों, साखियों, पदों, शब्दों, रमैणियों तथा उनकी वाणियों में देखे जा सकते हैं। कबीर ने जात-पात और छुआछूत पर निडरतापूर्वक जमकर प्रहार किया। कबीर ने धर्म के ठेकेदार लोगों को कविता के द्वारा चुनौती दी। सड़ी-गली मान्यताओं-परम्पराओं को हिलाकर रख दिया। यही कारण है कि कबीर से भारतीय संत काव्यधारा का उद्गम आरंभ होता है। बाहर से सरल, सपाट किन्तु भीतर से उतने ही प्रबल कबीर ने शिखर सत्यों को वामनावतार की तरह अपने छोटे-छोटे दोहों में समा दिया। समाज की गंदगी हटाकर स्वच्छ जीवन दर्शन उनकी कविता का ध्येय, श्रेय और प्रेय रहा। उनका उपदेश 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाला नहीं था।
संत कबीर की वाणी की प्रासंगिकता का सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहना मानव के आचरण, सोच और शिक्षा के विकास के लिए एक चुनौती है। यदि छह सौ वर्षों तक कोई सीख प्रासंगिक बनी रहती है तो इसका मतलब यही हो सकता है कि उस सीख से परिलक्षित बुराई, विसंगति या भूल इस बीच सुधारी नहीं गई है। वह अब भी कायम है।
निश्चय ही कबीर का व्यक्तित्व और कृतित्व राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्यकारों, समाज सुधारकों, धर्माचार्यों और राजनयिकों से उतनी ही बुलंदी से चिरंतन सवाल करता है। आवश्यकता है कबीर की जयंती मानाने, उनका मन्दिर बनाने के साथ - साथ आज कबीर, कबीर के राम, कबीर के दोहे में "साईं" व कबीर के उपदेशो को सही अर्थों में समझने और समझाने की तथा जीवन में उतारने की। और अंत में कबीर को नमन करते हुए उनके एक दोहे को उद्धृत करना चाहूँगा-
जब तूँ आया जगत में लोग हँसे तू रोए,
ऐसी करनी न करी पाछे हँसे सब कोए।
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