गुरु गोविंदसिंहजी क्रांतिकारी युग-पुरुष थे। वे एक स्वतंत्र अध्यात्म चिन्तक, भारतीय परंपराओं के संवर्द्धक, निष्ठावान धर्म-प्रवर्तक, सामाजिक समता और सामाजिक न्याय के संस्थापक, मानवतावादी लोक नायक और एक शूरवीर राष्ट्र नायक थे। वे सत्य, न्याय, सदाचार, निर्भीकता, दृढ़ता, त्याग एवं साहस की प्रतिमूर्ति थे।
जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है। उस समय भगवान दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंदसिंहजी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है, 'जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।'
दशम गुरु गोविंदसिंहजी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए सन् 1666 में पटना शहर में माता गुजरी की कोख से पिता गुरु तेगबहादुरजी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, 'मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।'
उन्होंने सदैव मत-मतांतरों एवं संप्रदायों के धार्मिक अंधविश्वासों, आडंबरयुक्त धर्माचार्यों, पाखंडपूर्ण कर्मकांडों, अहंकारयुक्त साधना-पद्धतियों और रूढ़ियों का विरोध किया तथा त्याग, संतसेवा एवं हरिनाम स्मरण का उपदेश दिया। साथ ही वे सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा दीनों एवं असहायों की प्रतिपालना के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे।
गुरु गोविंदसिंहजी ने भारतीय अध्यात्म परंपरा को नया आयाम दिया और उसमें साहस का समावेश करके अपने धर्म, अपनी जाति, अपने देश, अपनी स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खड्ग को धारण करने का आह्वान किया।
इसी क्रम में खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं। एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी सांसारिकता की। परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं।
गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए उन्होंने खालसा के सृजन का मार्ग अपनाया। गुरु गोविंदसिंहजी ने जिस प्रकार मानवतावादी दृष्टि का प्रतिपादन और प्रवर्तन किया, वह आज के युग में भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। आध्यात्मिक स्तर पर वे सभी प्राणियों को परमात्मा का रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि 'हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।'
गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, 'चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।' अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।
आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंदसिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
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