आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
'सेवा उपवन',पुस्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तू...?
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऎसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
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