Monday, 31 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 145
" श्रदा और सबुरी दो जुड़वाँ बहने है, जो एक दुसरे से अत्यधिक प्रेम करती है।"
क्रांतिकारी युग-पुरुष: गुरु गोविंदा सिंह जी
जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है। उस समय भगवान दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंदसिंहजी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है, 'जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।'
दशम गुरु गोविंदसिंहजी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए सन् 1666 में पटना शहर में माता गुजरी की कोख से पिता गुरु तेगबहादुरजी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, 'मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।'
उन्होंने सदैव मत-मतांतरों एवं संप्रदायों के धार्मिक अंधविश्वासों, आडंबरयुक्त धर्माचार्यों, पाखंडपूर्ण कर्मकांडों, अहंकारयुक्त साधना-पद्धतियों और रूढ़ियों का विरोध किया तथा त्याग, संतसेवा एवं हरिनाम स्मरण का उपदेश दिया। साथ ही वे सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा दीनों एवं असहायों की प्रतिपालना के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे।
गुरु गोविंदसिंहजी ने भारतीय अध्यात्म परंपरा को नया आयाम दिया और उसमें साहस का समावेश करके अपने धर्म, अपनी जाति, अपने देश, अपनी स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खड्ग को धारण करने का आह्वान किया।
इसी क्रम में खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं। एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी सांसारिकता की। परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं।
गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए उन्होंने खालसा के सृजन का मार्ग अपनाया। गुरु गोविंदसिंहजी ने जिस प्रकार मानवतावादी दृष्टि का प्रतिपादन और प्रवर्तन किया, वह आज के युग में भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। आध्यात्मिक स्तर पर वे सभी प्राणियों को परमात्मा का रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि 'हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।'
गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, 'चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।' अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।
आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंदसिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
Sunday, 30 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 144
"इस संसार में कोई भी ना तो अपनी इच्छा से आ सकता है और ना ही अपनी इच्छा से जा सकता है।"
सूफी काव्य के अग्रदूत बाबा शेख फरीद
Saturday, 29 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 143
"माया के प्रभाव से बचने के लिए उनकी लीला का गुणगान करो।"
कुरान : एक पवित्र किताब
Friday, 28 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 142
"सांसारिक पदार्थो से मिलने वाला सुख परमानंद की प्राप्ति नही करवाता।"
KURAN Says : Part - 1
Kuran Says..........
- Respect and honour all human beings irrespective of their religion, colour, race, sex, language, status, property, birth, profession/job and so on [17/70]
- Talk straight, to the point, without any ambiguity or deception [33/70]
- Choose best words to speak and say them in the best possible way [17/53, 2/83]
- Do not shout। Speak politely keeping your voice low. [31/19]
- Always speak the truth। Shun words that are deceitful and ostentatious [22/30]
- Do not confound truth with falsehood [2/42]
- Say with your mouth what is in your heart [3/167]
- Speak in a civilised manner in a language that is recognised by the society and is commonly used [4/5]
- When you voice an opinion, be just, even if it is against a relative [6/152]
Thursday, 27 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 141
"जो कुछ तुम पठन करते हो,
उसको आचरण में भी लाओ,
अन्यथा उसका क्या उपयोग है।"
अल्लाह
Wednesday, 26 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 140
"मेरे निराकार सचिदानंद स्वरुप का ध्यान करो,
जो आत्मज्ञान, परमानन्द और चेतना (बोध) है।"
इस्लाम की पाँच बुनियादी बातें
- कलमा पढ़ना-उसे खुदा की बादशाहत और मुहम्मद साहब के पैगम्बर होने की घोषणा करनी चाहिए। इसी घोषणा को 'कलमा' पढ़ना कहते हैं।
- नमाज़ क़ायम रखना- उसे रोज पाँच बार नमाज़ पढ़नी चाहिए और हरेक ज़ुमा के रोज दोपहर के बाद मस्जिद में नमाज़ पढ़नी चाहिए।
- जक़ात देना- उसे गरीबों को यह समझकर ज़कात (दान) देना चाहिए कि वह अल्लाह के प्रति कुछ अर्पित कर रहा है। यह एक अच्छा काम है।
- माहे रमजान के रोजे रखना- इस्लाम के पवित्र महीने रमजान में उसे रोज़ा(उपवास) रखना चाहिए।
- हज करना- उसे अपनी जिंदगी में अपने सामर्थ्य के अनुसार अथवा कम से कम एक बार 'हज' के लिए जाना चाहिए।
Tuesday, 25 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 139
"मैं कभी तुम्हारी उपेक्षा नही करूगा, बल्कि हर पल तुम्हारी रक्षा करुगा।"
Monday, 24 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 138
साईं ने कहा है :-
"मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छा अनुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है।"
अरुण यह मधुमय देश हमारा : जयशंकर प्रसाद
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कंकुम सारा॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किये, समझ नीड़ निज प्यारा॥
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा॥
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा॥
संदर्भ: "भारत महिमा" से
Sunday, 23 August 2009
जियो जियो अय हिन्दुस्तान : रामधारी सिंह "दिनकर"
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले है
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते है
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।
जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समाना
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!
साईं ने कहा है : भाग - 137
"मैं श्रद्धा और सबुरी के अलावा तुमसे कुछ और नही चाहता हूँ।"
Saturday, 22 August 2009
जनतंत्र का जन्म : रामधारी सिंह "दिनकर"
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकारबीता;
गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
(26जनवरी,1950ई।)
साईं ने कहा है : भाग - 136
"मेरा निवास तुम्हारे ह्रदय में है और मैं ही तुम्हारे भीतर हूँ।"
Friday, 21 August 2009
साईं बाबा की मधुर वाणी
"तुम मुझे अपने घर में बिठाके तो देख, तेरा घर स्वर्ग ना बना दू तो कहना।"
जय साईं भारत.......!!!
साईं ने कहा है : भाग - 135
"जो बन्धनों से मुक्त होना चाहता है, केवल वही आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हो सकता है।"
भारत महिमा : जयशंकर प्रसाद
उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।
बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
Thursday, 20 August 2009
कल तारण गुरू नानक आया : जीवन परिचय
भादों की अमावस की धुप अँधेरी रात में बादलों की डरावनी गड़गड़ाहट, बिजली की कौंध और वर्षा के झोंके के बीच जबकि पूरा गाँव नींद में निमग्न था, उस समय एक ही व्यक्ति जाग रहा था,'नानक'। नानक देर रात तक जागते रहे और गाते रहे। आधी रात के बाद माँ ने दस्तक दी और कहा- 'बेटे, अब सो भी जाओ। रात कितनी बीत गई है।' नानक रुके, लेकिन उसी वक्त पपीहे ने शोर मचाना शुरू कर दिया। नानक ने माँ से कहा- 'माँ अभी तो पपीहा भी चुप नहीं हुआ। यह अब तक अपने प्यारे को पुकार रहा है। मैं कैसे चुप हो जाऊँ जब तक यह गाता रहेगा, तब तक मैं भी अपने प्रिय को पुकारता रहूँगा।
नानक ने फिर गाना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे उनका मन पुनः प्रियतम में लीन हो गया। कौन है ये नानक, क्या केवल सिख धर्म के संस्थापक। नहीं, मानव धर्म के उत्थापक। क्या वे केवल सिखों के आदि गुरु थे? नहीं, वे मानव मात्र के गुरु थे। पाँच सौ वर्षों पूर्व दिए उनके पावन उपदेशों का प्रकाश आज भी मानवता को आलोकित कर रहा है।
गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) 15 अप्रैल 1469 ई। (वैशाख सुदी 3, संवत् 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। तलवंडी पाकिस्तान के लाहौर जिले से 30 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
नानकदेवजी के जन्म के समय प्रसूति गृह अलौकिक ज्योत से भर उठा। शिशु के मस्तक के आसपास तेज आभा फैली हुई थी, चेहरे पर अद्भुत शांति थी। पिता बाबा कालूचंद्र बेदी और माता त्रिपाता ने बालक का नाम नानक रखा। गाँव के पुरोहित पंडित हरदयाल ने जब बालक के बारे में सुना तो उन्हें समझने में देर न लगी कि इसमें जरूर ईश्वर का कोई रहस्य छुपा हुआ है।
जीती नौखंड मेदनी सतिनाम दा चक्र चलाया,
भया आनंद जगत बिच कल तारण गुरू नानक आया ।
बचपन से ही नानक के मन में आध्यात्मिक भावनाएँ मौजूद थीं। पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। पंडितजी ने नानक को और ज्ञान देना प्रारंभ किया तो बालक ने अक्षरों का अर्थ पूछा। पंडितजी निरुत्तर हो गए। नानकजी ने क से लेकर ड़ तक सारी पट्टी कविता रचना में सुना दी। पंडितजी आश्चर्य से भर उठे। उन्हें अहसास हो गया कि नानक को स्वयं ईश्वर ने पढ़ाकर संसार में भेजा है। इसके उपरांत नानक को मौलवी कुतुबुद्दीन के पास पढ़ने के लिए बिठाया गया। नानक के प्रश्न से मौलवी भी निरुत्तर हो गए तो उन्होंने अलफ, बे की सीफहीं के अर्थ सुना दिए। मौलवी भी नानकदेवजी की विद्वता से प्रभावित हुए।
विद्यालय की दीवारें नानक को बाँधकर न रख सकीं। गुरु द्वारा दिया गया पाठ उन्हें नीरस और व्यर्थ प्रतीत हुआ। अंतर्मुखी प्रवृत्ति और विरक्ति उनके स्वभाव के अंग बन गए। एक बार पिता ने उन्हें भैंस चराने के लिए जंगल में भेजा। जंगल में भैसों की फिक्र छोड़ वे आँख बंद कर अपनी मस्ती में लीन हो गए। भैैंसें पास के खेत में घुस गईं और सारा खेत चर डाला। खेत का मालिक नानकदेव के पास जाकर शिकायत करने लगा। जब नानक ने नहीं सुना तो जमींदार रायबुलार के पास पहुँचा। नानक से पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि घबराओ मत, उसके ही जानवर हैं, उसका ही खेत है, उसने ही चरवाया है। उसने एक बार फसल उगाई है तो हजार बार उगा सकता है। मुझे नहीं लगता कोई नुकसान हुआ है। वे लोग खेत पर गए और वहाँ देखा तो दंग रह गए, खेत तो पहले की तरह ही लहलहा रहा था।
एक बार जब वे भैंस चराते समय ध्यान में लीन हो गए तो खुले में ही लेट गए। सूरज तप रहा था जिसकी रोशनी सीधे बालक के चेहरे पर पड़ रही थी। तभी अचानक एक साँप आया और बालक नानक के चेहरे पर फन फैलाकर खड़ा हो गया। जमींदार रायबुलार वहाँ से गुजरे। उन्होंने इस अद्भुत दृश्य को देखा तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने नानक को मन ही मन प्रणाम किया। इस घटना की स्मृति में उस स्थल पर गुरुद्वारा मालजी साहिब का निर्माण किया गया।
उस समय अंधविश्वास जन-जन में व्याप्त थे। आडंबरों का बोलबाला था और धार्मिक कट्टरता तेजी से बढ़ रही थी। नानकदेव इन सबके विरोधी थे। जब नानक का जनेऊ संस्कार होने वाला था तो उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि अगर सूत के डालने से मेरा दूसरा जन्म हो जाएगा, मैं नया हो जाऊँगा, तो ठीक है। लेकिन अगर जनेऊ टूट गया तो? पंडित ने कहा कि बाजार से दूसरा खरीद लेना। इस पर नानक बोल उठे- 'तो फिर इसे रहने दीजिए। जो खुद टूट जाता है, जो बाजार में बिकता है, जो दो पैसे में मिल जाता है, उससे उस परमात्मा की खोज क्या होगी। मुझे जिस जनेऊ की आवश्यकता है उसके लिए दया की कपास हो, संतोष का सूत हो, संयम की गाँठ हो और उस जनेऊ सत्य की पूरन हो। यही जीव के लिए आध्यात्मिक जनेऊ है। यह न टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न ही जलता है और न ही खोता है।'
एक बार पिता ने सोचा कि नानक आलसी हो गया है तो उन्होंने खेती करने की सलाह दी। इस पर नानकजी ने कहा कि वह सिर्फ सच्ची खेती-बाड़ी ही करेंगे, जिसमें मन को हलवाहा, शुभ कर्मों को कृषि, श्रम को पानी तथा शरीर को खेत बनाकर नाम को बीज तथा संतोष को अपना भाग्य बनाना चाहिए। नम्रता को ही रक्षक बाड़ बनाने पर भावपूर्ण कार्य करने से जो बीज जमेगा, उससे ही घर-बार संपन्न होगा।
"मनु हालि किरसाणी करमी सरमु पानी तुन खेतु
नाम बीजु संतोखु सुहागा रखु गरीबी वेसु
भाउ करम करि जमसी से घर भागठ देखु ।"
साईं ने कहा है : भाग - 134
"कामुक विचार मानसिक संतुलन और शक्ति को नष्ट कर देते है, वे विद्वान् को भी प्रभावित करते है।"
Wednesday, 19 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 133
"ऐसे मित्र बनाओ जो अंत तक तुम्हारे साथ दे, मैं कभी किसी को बिच में नहीं छोड़ता।"
Tuesday, 18 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 132
"अंहकार त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हारे ह्रदय में विराजमान हूँ।"
Monday, 17 August 2009
साईं ने कहा है : भाग - 131
"अपना कर्तव्य करो और अपना शरीर, चित और जीवन गुरु के चरणों में अर्पित कर दो, गुरु ईश्वर है। ऐसा करने के लिए दृढ़ विश्वास आवश्यक है।"
कबीर ने कहा है : भाग - 19
"कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा।"
Sunday, 16 August 2009
गुरु नानकदेव के पद : भाग - 5
साईं ने कहा है : भाग - 130
"बौर लगे आम के वृक्ष की तरफ़ देखो, यदि सभी बौर फल बन जाए तो कितनी उत्तम फसल हो, परन्तु क्या ऐसा होता है? अधिकतर गिर जाते है।"
कबीर ने कहा है : भाग - 18
"चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी।"
Saturday, 15 August 2009
तीनों बन्दर बापू के : नागार्जुन
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के !
सर्वोदय के नटवरलाल
फैला दुनिया भर में जाल
अभी जियेंगे ये सौ साल
ढाई घर घोडे की चाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवरलाल
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं : गुलज़ार
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं
एक है जिसका सर नवें बादल में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है
एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है
फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है
‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!
आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है
साठ साल आजादी के…हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा!!
हिन्दोस्तान उम्मीद से है..
साईं ने कहा है : भाग - 129
"संसार में चाहे उलट-पलट हो जाए, परन्तु अपने स्थान पर सदा दृढ़ रहकर गतिमान दृश्य को शांतिपूर्वक देखो।"
सुबह-ए-आज़ादी - ये दाग़ दाग़ उजाला : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तरों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज् का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़िना-ए-ग़म-ए-दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकरती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फ़िरक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
आज तुम्हारा जन्मदिवस : नामवर सिंह
आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेल; रंग-रंग गुब्बारे।
उठते लघु-लघु हाथ,सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छ: बजे।
पथ, इमली में भरा व्योम,आ बैठे तारे
'सेवा उपवन',पुस्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तू...?
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऎसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
Kashi Sai Image : Part - 5
Friday, 14 August 2009
हे प्रभु जागिए अपने भारत को सम्हालिए।
भारत को एक मिली-जुली सरकार से भी ज्यादा आवश्यकता है एक मिले-जुले अवतार की, जिसमें साई का आध्यात्म हो जो सर्व धर्मसमन्वय की महानतम् विभूति थे, विवेकानंद का त्याग, ओज, देशभक्ति व जन संपर्क हो और महात्मा गांधी की कर्तव्य निष्ठा और जीवन शैली हो और सरदार पटेल का दुर्दम्य अनुशासित शासन हो, तब ही राष्ट्र फिर से बनता है।
हे प्रभु जागिए अपने भारत को सम्हालिए।
राजनीति नहीं किंतु देशभक्ति को राष्ट्र निर्माण का आधार बनाना होगा और हमारी चिरंतन गुरु शिष्य परंपरा को फिर से नया होश व जोश भरकर देशभर में हर जगह ले जाना होगा। इस कार्य में साई भक्तों की अहम भूमिका है। सर्वधर्मसमन्वय के प्रतिभाशाली दूत बनकर काम करें और देशभक्ति व अध्यात्म के आधार पर नये राष्ट्र के निर्माण के लिए अपना योगदान दें।
गुरु नानकदेव के पद : भाग - 4
प्यारे भारत देश : माखनलाल चतुर्वेदी
गगन-गगन तेरा यश फहरा
पवन-पवन तेरा बल गहरा
क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले
चरण-चरण संचरण सुनहरा
ओ ऋषियों के त्वेष
प्यारे भारत देश।।
वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी
प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जागी
उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक
मानो आँसू आये बलि-महमानों तक
सुख कर जग के क्लेश
प्यारे भारत देश।।
तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे!
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी
बातें करे दिनेश
प्यारे भारत देश।।
जपी-तपी, संन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे
हम सब एक, अनेक रूप में, क्या उभरे क्या ऊबे
सजग एशिया की सीमा में रहता केद नहीं
काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं
श्रम के भाग्य निवेश
प्यारे भारत देश।।
वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,
जय-जय अमित अशेष
प्यारे भारत देश।।
साईं ने कहा है : भाग - 128
" तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यो ना करे,
कटु उत्तर देकर तुम उसपर क्रोधित ना हो।"
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
Thursday, 13 August 2009
शिरडी के साईं बाबा कौन थे ?
साईं ने कहा है : भाग - 127
"मैं सत्य बोलता हूँ और सत्य के आलावा कुछ नही बोलता।"
कबीर ने कहा है : भाग - 17
"आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी।
Wednesday, 12 August 2009
गुरु नानकदेव के पद : भाग - 3
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के : कबीर
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे ।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे ।
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे ।
गया ना मन का फेर रे ।
हाथ का मनका छाँड़ि दे मन का मनका फेर ॥
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे ।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे ।
दुख में करता याद रे ।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद ॥
कबीर ने कहा है : भाग - 16
"माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो।"
Tuesday, 11 August 2009
शिरडी के संत श्री साँई बाबा
सुभाष चन्द्र बोस
अंखियां तो छाई परी : कबीर
विवेकानंद और वेश्या
विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब पहली-पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था। संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण, मैं मील दो मील का चक्कर लगाकर उस मुहल्ले से बचकर घर पहुँचता था। उस मुहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न था। यह उस वेश्याओं के मुहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए कि वेश्या के मुहल्ले से जानकर गुजरें। जानकर बचकर गुजरें, तो भी वही है, फर्क नहीं है।
विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक स्वागत-समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत-समारोह कर सकता था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बुला ली विवेकानंद के स्वागत-समारोह के लिए। राजा का स्वागत-समारोह था उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा! ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से इन्कार कर दिया। वे अपने तंबू में ही बैठ गए और उन्होंने कहा, मैं न जाऊँगा। वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है, एक लोहे का टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूँ और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस नकली है। वह पारस असली नहीं है। उस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया 'प्रभुजी, मेरे अवगुण चित्त न धरो!' विवेकानंद के प्राण काँप गए। जब सुना कि पारस पत्थर की तो खूबी ही यही है कि वेश्या को भी स्पर्श करे, तो सोना हो जाए। भागे! तंबू से निकले और पहुँच गए वहाँ, जहाँ वेश्या गीत गा रही थी। उसकी आँखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने वेश्या को देखा। और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई विकर्षण। उस दिन मैंने जाना कि संन्यास का जन्म हुआ है। विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है, विपरीत है। वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से डरता है।
विवेकानंद ने कहा, उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे माँ ही दिखाई पड़ सकी। कोई विकर्षण न था।
साईं ने कहा है : भाग - 125
"सभी इन्द्रियों और चित को ईश्वर के पूजन में लगाओ,
तब वह शांत, संतुष्ट और आसक्ति रहित हो जायेगी।"
Monday, 10 August 2009
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की बाणी का आरंभ मूल मंत्र
एक ओंकार : अकाल पुरख (परमात्मा) एक है। उसके जैसा कोई और नहीं है। वो सब में रस व्यापक है। हर जगह मौजूद है।
सतनाम : अकाल पुरख का नाम सबसे सच्चा है। ये नाम सदा अटल है, हमेशा रहने वाला है।
करता पुरख : वो सब कुछ बनाने वाला है और वो ही सब कुछ करता है। वो सब कुछ बनाके उसमें रस-बस गया है।
निरभऊ : अकाल पुरख को किससे कोई डर नहीं है।
निरवैर : अकाल पुरख का किसी से कोई बैर (दुश्मनी) नहीं है।
अकाल मूरत : प्रभु की शक्ल काल रहित है। उन पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। बचपन, जवानी, बुढ़ापा मौत उसको नहीं आती। उसका कोई आकार कोई मूरत नहीं है।
अजूनी : वो जूनी (योनियों) में नहीं पड़ता। वो ना तो पैदा होता है ना मरता है।
स्वैभं :( स्वयंभू) उसको किसी ने न तो जनम दिया है, न बनाया है वो खुद प्रकाश हुआ है।
गुरप्रसाद : गुरु की कृपा से परमात्मा हृदय में बसता है। गुरु की कृपा से अकाल पुरख की समझ इनसान को होती है।
साईं ने कहा है : भाग - 124
"जो भूखो को भोजन करता है,
वह यथार्थ में मुझे ही भोजन करता है,
इसे सत्य मनो।"
गुरु नानकदेव के पद : भाग - 2
हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥
धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥
दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥
Sunday, 9 August 2009
गुरु नानकदेव के पद : भाग - 1
जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥
क़दम मिला कर चलना होगा : अटल बिहारी वाजपेयी
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
Saturday, 8 August 2009
सिपाही : माखनलाल चतुर्वेदी
छुए क्यों मुझे विपुल सम्मान?
भूलो ऐ इतिहास,
खरीदे हुए विश्व-ईमान !!
अरि-मुड़ों का दान,
रक्त-तर्पण भर का अभिमान,
लड़ने तक महमान,
एक पँजी है तीर-कमान!
मुझे भूलने में सुख पाती,
जग की काली स्याही,
दासो दूर, कठिन सौदा है
मैं हूँ एक सिपाही !
सुनूँ मधुरतर नाद?
छि:! मेरी प्रत्यंचा भूले
अपना यह उन्माद!
झंकारों का कभी सुना है
भीषण वाद विवाद?
क्या तुमको है कुस्र्-क्षेत्र
हलदी-घाटी की याद!
सिर पर प्रलय, नेत्र में मस्ती,
मुट्ठी में मन-चाही,
लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है,
मैं हूँ एक सिपाही !
खीचों राम-राज्य लाने को,
भू-मंडल पर त्रेता !
बनने दो आकाश छेदकर
उसको राष्ट्र-विजेता
बूते कठिन परीक्षा लेता,
कोटि-कोटि `कंठों' जय-जय है
आप कौन हैं, नेता?
सेना छिन्न, प्रयत्न खिन्न कर,
लाये न्योत तबाही,
कैसे पूजूँ गुमराही को
मैं हूँ एक सिपाही?
बोल अरे सेनापति मेरे!
मन की घुंडी खोल,
जल, थल, नभ, हिल-डुल जाने दे,
तू किंचित् मत डोल !
दे हथियार या कि मत दे तू
पर तू कर हुंकार,
ज्ञातों को मत, अज्ञातों को,
तू इस बार पुकार!
धीरज रोग, प्रतीक्षा चिन्ता,
सपने बनें तबाही,
कह `तैयार'! द्वार खुलने दे,
मैं हूँ एक सिपाही !
बदलें रोज बदलियाँ, मत कर
चिन्ता इसकी लेश,
गर्जन-तर्जन रहे, देख
अपना हरियाला देश!
खिलने से पहले टूटेंगी,
तोड़, बता मत भेद,
वनमाली, अनुशासन की
सूजी से अन्तर छेद!
श्रम-सीकर प्रहार पर जीकर,
बना लक्ष्य आराध्य
मैं हूँ एक सिपाही, बलि है
मेरा अन्तिम साध्य !
कोई नभ से आग उगलकर
किये शान्ति का दान,
कोई माँज रहा हथकड़ियाँ
छेड़ क्रांन्ति की तान!
कोई अधिकारों के चरणों
चढ़ा रहा ईमान,
`हरी घास शूली के पहले
की'-तेरा गुण गान!
आशा मिटी, कामना टूटी,
बिगुल बज पड़ी यार!
मैं हूँ एक सिपाही ! पथ दे,
खुला देख वह द्वार !!
माँ है तो सबकुछ है.....!!!
साध्वी डॉ। चन्द्रप्रभाजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि माँ एक गुरु के रूप में अपनी संतान को संस्कार देती है। माता जीवन का निर्माण करती है, तो पिता उसे उन्नति के शिखर तक ले जाता है। माँ है तो सबकुछ है और यदि माँ नहीं तो कुछ भी नहीं।
साध्वी डॉ। चन्द्रप्रभाजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि माँ एक गुरु के रूप में अपनी संतान को संस्कार देती है। माता जीवन का निर्माण करती है, तो पिता उसे उन्नति के शिखर तक ले जाता है। माँ है तो सबकुछ है और यदि माँ नहीं तो कुछ भी नहीं।
सद्गुरु हमें ज्ञान देते हैं। सद्गुरुरूपी नाविक के साथ धर्मरूपी नौका में बैठकर इंसान संसार सागर को पार कर लेता है। आज व्यक्ति धन-वैभव का अहंकार करता है, परंतु वह अंत में धराशायी हो जाता है। जिसके जीवन में विनय का गुण है, वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
यदि ज्ञान पाना है तो अहंकार का विसर्जन करना ही होगा। साध्वीजी ने बच्चों को प्रेरणा दी कि वे प्रतिदिन प्रातः अपने माता-पिता और सद्गुरु के चरणों में वंदन अवश्य करें।
"माँ एक गुरु के रूप में अपनी संतान को संस्कार देती है। माता जीवन का निर्माण करती है, तो पिता उसे उन्नति के शिखर तक ले जाता है। माँ है तो सबकुछ है और यदि माँ नहीं तो कुछ भी नहीं।"
कल नाहिं पड़त जिस : मीराबाई
पिवको पंथ निहारत सिगरी, रैण बिहानी हो।
सखियन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय, ऐसी ठानी हो।
अंग-अंग ब्याकुल भई मुख, पिय पिय बानी हो।
अंतर बेदन बिरहकी कोई, पीर न जानी हो।
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।
साईं ने कहा है : भाग - 122
"चातुर्य त्याग कर सदैव साईं-साईं का स्मरण करो।
ऐसा करने से सभी बंधन छूट जायेंगे और मुक्ति प्राप्त होगी।"
Friday, 7 August 2009
कल नाहिं पड़त जिस : मीराबाई
पिवको पंथ निहारत सिगरी, रैण बिहानी हो।
सखियन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय, ऐसी ठानी हो।
अंग-अंग ब्याकुल भई मुख, पिय पिय बानी हो।
अंतर बेदन बिरहकी कोई, पीर न जानी हो।
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला : शिवमंगल सिंह सुमन
घर-आंगन में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिल
भर भूमि न बँटने देंगें ।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी ।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती ।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता ।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा ।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी ।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी ।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला ।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा ।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे ।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
साईं ने कहा है : भाग - 121
"स्वयं कष्ट सहन कर मैं अपने भक्तो का ध्यान रखता हूँ,
क्योकि भक्त मुझे अपने जीवन से भी अधिक प्रिय है।"
Thursday, 6 August 2009
एलान-ए-जंग : अली सरदार जाफ़री
गांधी जी जंग का एलान कर दिया
बातिल से हक़ को दस्त-ओ-गरीबान कर दिया
हिन्दुस्तान में इक नयी रूह फूंककर
आज़ादी-ए-हयात का सामान कर दिया
शेख़ और बिरहमन में बढ़ाया इत्तिहाद
गोया उन्हें दो कालिब-ओ-यकजान कर दिया
ज़ुल्मो-सितम की नाव डुबोने के वास्ते
क़तरे को आंखों-आंखों में तूफ़ान कर दिया
साईं ने कहा है : भाग - 120
"भक्त की मृत्तु के समय मैं उसे अपनी शरण में ले लेता हूँ,
चाहे वो हजारो मील दूर क्यो ना हो।"
Wednesday, 5 August 2009
किसान : मैथिलीशरण गुप्त
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे कहाँ
आता महाजन के यहाँ वहा अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस अर्चि में, वे निज शरीर जला रहे
घनघोर वर्षा हो रही, गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
और शीत कैसा पड़ रहा, थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशी सूर्य है फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है
अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों : मीराबाई
गोकुळमां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधोरे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधोरे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनोरे॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनोरे॥४॥
Love your Parents
To honor parents is, one of the noblest human deeds. Respecting your parents is important even if they weren't the best parents to you. .
What then are the good deeds you must do for your parents? Honor them; spend of your wealth in their welfare; strive in their interests; tolerate and bear with them in old age, serve them; do not tire of serving them; treat them gently when they are old and weak.
"Whether one or both of them attain old age, say not to them a word of contempt, nor repel them, but address them in terms of honor, pray to your sai to keep them happy and healthy. They brought you in the world and the least that you can do is respect them.
Let our youth, our boys and girls take special note of today's lessons. Your education which starts in the home cannot not be successful unless you honor and obey your educators, your parents. Remember, too, that after GOD come your parents: "The JannahT lies at the feet of the Mother."
(MA KE CHERNO MAIN HI SWARG HOTA HAI) SO Be good to your parents and our SAI shall be good to you,
Dear saibaba I pray for all the parents please continue to bestow Your love, grace, and healing on them । You have shown your goodness and we are all in awe of your power!! Please send down your guardian angels to spread their wings to comfort and protect them
SAI BABA Please BLESSES ALL.
परदे हटा के देखो : अशोक चक्रधर
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।
ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।
Tuesday, 4 August 2009
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था : राहत इन्दौरी
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था
अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त,
और हर मसूम टहनी पर फलों का बार था
देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया,
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था
सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब,
एक ज़माना था के जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था
काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था
Monday, 3 August 2009
अकाल और उसके बाद : नागार्जुन
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
Note:
रचनाकाल : 1952
Sunday, 2 August 2009
बुरा ज़माना, बुरा ज़माना : नामवर सिंह
बुरा ज़माना, बुरा ज़माना, बुरा ज़माना
लेकिन मुझे ज़माने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना
ऎसे युग में जिसमें ऎसी ही बही हवा
गंध हो गई मानव की मानव को दुस्सह।
शिकवा मुझ को है ज़रूर लेकिन वह तुम से--
तुम से जो मनुष्य होकर भी गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह
कोसेगा तुम को अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा! बड़े भाग से तुम को
मानव जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको
ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर पथ के दावी!
तोड़ अद्रि का वक्ष क्षुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा।
अपनी गरज हो मिटी : मीराबाई
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीराके प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥
साईं ने कहा है : भाग - 116
"स्वयं को मोह माया और इच्छाओं से दूर करो,
नही तो वो तुम्हे अपना दास बना लेगी।"
Saturday, 1 August 2009
काशी साईं आज का विचार : भाग - 20
प्रार्थना क्या है?
प्रेम और समर्पण।
और, जहाँ प्रेम नहीं है, वहाँ प्रार्थना नहीं है।
प्रेम के स्मरण में एक अद्भुत घटना का उल्लेख है।
नूरी, रक्काम एवं अन्य कुछ सूफी फकीरों पर काफिर होने का आरोप लगाया गया था, और उन्हें मृत्यु दंड दिया जा रहा था।
जल्लाद जब नंगी तलवार लेकर रक्काम के निकट आया, तो नूरी ने उठकर स्वयं को अपने मित्र के स्थान पर अत्यंत प्रसन्नता और नम्रता के साथ पेश कर दिया। दर्शक स्तब्ध रह गए। हजारों लोगों की भीड़ थी। उनमें एक सन्नाटा दौड़ गया।
जल्लाद ने कहाः हे युवक, तलवार ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे मिलने के लिए लोग इतने उत्सुक और व्याकुल हों। और फिर तुम्हारी अभी बारी भी नहीं आई है! और, पता है कि फकीर नूरी ने उत्तर में क्या कहा?
उसने कहा प्रेम ही मेरा धर्म है। मैं जानता हूँ कि जीवन, संसार में सबसे मूल्यवान वस्तु है, लेकिन प्रेम के मुकाबले वह कुछ भी नहीं है। जिसे प्रेम उपलब्ध हो जाता है, उसे जीवन खेल से ज्यादा नहीं है।
संसार में जीवन श्रेष्ठ है। प्रेम जीवन से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह संसार का नहीं, सत्य का अंग है।
और, प्रेम कहता है कि जब मृत्यु आए, तो अपने मित्रों के आगे हो जाओ और जब जीवन मिलता हो तो पीछे। इसे हम प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना का कोई ढाँचा नहीं होता है। वह तो हृदय का सहज अंकुरण है। जैसे पर्वत से झरने बहते हैं, ऐसे ही प्रेम-पूर्ण हृदय से प्रार्थना का आविर्भाव होता है।
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह : क़तील
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह
मैनें तुझसे चाँद सितारे कब माँगे
रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह
सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके
सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह
या धरती के ज़ख़्मों पर मरहम रख दे
या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह
तराना-ए-हिन्द : इक़बाल
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसिताँ हमारा।
ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
पर्बत वो सब से ऊँचा हमसाया आसमाँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिस के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा, वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा ।
Note: रश्क=प्रतिस्पर्धा; जिनाँ=स्वर्ग; महरम=रहस्य वेत्ता; निहाँ=गुप्त
संत कबीर एक मस्तमौला फकीर
दुई पाटन के बीच साबुत बचा न कोए।
कबीर पर ओशो कहते है, कि.....
"कबीर में हिंदू और मुसलमान संस्कृतियाँ जिस तरह तालमेल खा गईं, इतना तालमेल तुम्हें गंगा और यमुना में, प्रयाग में भी नहीं मिलेगा; दोनों का जल अलग-अलग मालूम होता है। कबीर में जल भरा भी अलग-अलग मालूम नहीं होता है। कबीर का संगम प्रयाग के संगम से ज्यादा गहरा मालूम होता है। वहाँ कुरान और वेद ऐसे खो गए कि रेखा भी नहीं छूटी।"
पंद्रहवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक पहुँच चुका मानव अब भी अपने गिरेबाँ में झाँकने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल कबीर का दिवस मनाने का आशय अब इतना भर है कि जिसके सूत्र वाक्य हमारी पसंदगी को ललकारते हैं, उसे साल में केवल एक दिन याद करने की हमारी मजबूरी होती है- आज के दौर की आत्मवंचना यही है। इसिलिए कबीर आज भी प्रासंगिक है- लेकिन उपेक्षित।
संतों के मरने के बाद पत्थरों को पूजने और पत्थरों से मारने को कानून मानने वाली कौम क्या कभी कबीर का महत्व समझ पाएगी?
कबीर जब जीवित थे तब उन्हें पत्थर मारे गए, क्योंकि वे समाज की प्रचलित धारणाओं पर चोट कर भ्राँतियों के प्रति लोगों को सजग कर रहे थे। आश्चर्य की बात है कि जिस कवि ने कविता के माध्यम से अपनी सीधी-सच्ची, अटपटी वाणी द्वारा युग की तमाम गंदगी को झाड़-बुहारकर जनजाग्रति का कार्य किया, जो कि आज तक कोई कवि न कर सका- उसे पाखंडी हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा पत्थर मारे गए, क्योंकि उस फकीर के दोहे पंडितों और मुल्लाओं की दुकानदारी के खिलाफ बंद का ऐलान थे।
कबीर अनपढ़ होते हुए भी पंडितों और मौलवियों से लोहा लेकर, सड़ी-गली मान्यताओं और रिवाजों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे, जिसके फलस्वरूप इसी कौम द्वारा कबीर के हिंदू या मुसलमान होने के विवाद पर बँटवारे की परम्परा का निर्वाह करते हुए उनकी मृत्यु के समय 'मगहर' में झगड़ा-फसाद कर उनका भी बँटवारा किया गया।
एक ही स्थान को दो भागों में बाँटकर एक पर दरगाह और दूसरे पर समाधि बना दी गई। धिक्कार है ऐसी कौमों पर जो साम्प्रदायिक सोच के चलते संतों पर भी अपना कथित हक जताते हैं और उनकी मृत्यु के बाद उनके हिंदू या मुसलमान होने के मनगढ़ंत प्रमाण जुटाते हैं, क्योंकि उनकी कट्टरवादी आँखें संत की महानता पर भी सिर्फ अपनी कौम का ही ठप्पा देखना चाहती हैं।
कबीर ने जो कुछ कहा, अनुभूत सच कहा और सच लोगों को आसानी से पचता नहीं। आँखों से देखे और मस्तिष्क से परखे सत्य को कबीर जैसे कवि ने हृदय की वाणी बनाया और यही उनकी कविता का कालजयी काव्यामृत बना। कबीर ने रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए लोगों को उनके स्तर का ज्ञान उनकी भाषा में दिया। इसी से कबीर को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता मिली और वे लोकनायक कवि बने।
लेकिन क्या कबीर सिर्फ भक्तकवि थे। नहीं, कबीर ही वे साधक थे, जिन्होंने भक्ति भाव, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को पूर्ण स्वच्छ और सुंदर करने का प्रयास किया था और आने वाले युग में सूफी संतों तुलसीदास, सूरदास, मीरा, रसखान के लिए भारत में फलने-फूलने और मानव जीवन के आदर्शों को बुलंदी तक पहुँचाने की पृष्ठभूमि तैयार की थी।
कबीर आजकल के कवियों की तरह कविता कर कवि बनने नहीं आए थे। वे कोई साहित्यकार नहीं थे। अपने साध्य या लक्ष्य पर अनुभव से कही सीधी-सच्ची-सपाट बात ही कबीर की कविता बनती गई और वह भी काम करते हुए। यानी जुलाहे का काम कर कपड़ा बुनते हुए उनकी कविताएँ भी बुनाती चली गईं।
उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियाँ उड़ता चला गया।
कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है। उनकी एक रचना में यह सब कबीर ने कहा भी हैः-
साधो देखो जग बौराना।
साँची कहूँ तो मारन धावे,
झूठे जग पतियाना।
हिंदू कहे मोहि राम पियारा,
मुसलमान रहमाना,
आपस में दोऊ लड़ी मरत है,
मरम न काहु जाना।
बहुतक देखे नेमी धरमी
प्रातः करे असनाना,
आतम छाड़ि पाषाणै पूजे,
इनका थोथा ज्ञाना।
बहुतक देखे पीर औलिया,
पढ़ै किताब कुराना,
करै मुरीद कबर दिखलावै,
इनहु खुदा नहीं जाना।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
इनमें कोउ न दीवाना॥'
ऐसे कितने ही उपदेश कबीर के दोहों, साखियों, पदों, शब्दों, रमैणियों तथा उनकी वाणियों में देखे जा सकते हैं। कबीर ने जात-पात और छुआछूत पर निडरतापूर्वक जमकर प्रहार किया। कबीर ने धर्म के ठेकेदार लोगों को कविता के द्वारा चुनौती दी। सड़ी-गली मान्यताओं-परम्पराओं को हिलाकर रख दिया। यही कारण है कि कबीर से भारतीय संत काव्यधारा का उद्गम आरंभ होता है। बाहर से सरल, सपाट किन्तु भीतर से उतने ही प्रबल कबीर ने शिखर सत्यों को वामनावतार की तरह अपने छोटे-छोटे दोहों में समा दिया। समाज की गंदगी हटाकर स्वच्छ जीवन दर्शन उनकी कविता का ध्येय, श्रेय और प्रेय रहा। उनका उपदेश 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाला नहीं था।
संत कबीर की वाणी की प्रासंगिकता का सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहना मानव के आचरण, सोच और शिक्षा के विकास के लिए एक चुनौती है। यदि छह सौ वर्षों तक कोई सीख प्रासंगिक बनी रहती है तो इसका मतलब यही हो सकता है कि उस सीख से परिलक्षित बुराई, विसंगति या भूल इस बीच सुधारी नहीं गई है। वह अब भी कायम है।
निश्चय ही कबीर का व्यक्तित्व और कृतित्व राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्यकारों, समाज सुधारकों, धर्माचार्यों और राजनयिकों से उतनी ही बुलंदी से चिरंतन सवाल करता है। आवश्यकता है कबीर की जयंती मानाने, उनका मन्दिर बनाने के साथ - साथ आज कबीर, कबीर के राम, कबीर के दोहे में "साईं" व कबीर के उपदेशो को सही अर्थों में समझने और समझाने की तथा जीवन में उतारने की। और अंत में कबीर को नमन करते हुए उनके एक दोहे को उद्धृत करना चाहूँगा-
जब तूँ आया जगत में लोग हँसे तू रोए,
ऐसी करनी न करी पाछे हँसे सब कोए।
चंद्रशेखर आज़ाद के अंतिम संस्कार के बारे में जानने के लिए उनके बनारस के रिश्तेदार श्री शिवविनायक मिश्रा द्वारा दिया गया वर्णन पढ़ना समीचीन होगा:-
उनके शब्दों में—“आज़ाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद होने के बाद इलाहाबाद के गांधी आश्रम के एक स...
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भगत देश का - शहीदेआजम भगत सिंह को समर्पित